बतौर एक नागरिक : राजनैतिक परिक्रमा

संजय पराते
1. संघ-भाजपा : दिल की बात फिर जुबां पर!
संघी गिरोह की चड्डी एक बार फिर खिसक गई है। पिछले लोकसभा चुनाव में उसने 400 पार का नारा दिया था, ताकि संविधान को बदल सके। लेकिन मतदान में आम जनता ने उनका नाड़ा ही ढीला कर दिया। इससे भी उसने सबक नहीं सीखा और दो बैसाखियों के सहारे चल रही मोदी सरकार ने संविधान से खिलवाड़ का अपना प्रिय खेल जारी रखा है।
असली बात यह है कि संघी गिरोह कभी भी बाबा साहेब आंबेडकर के के नेतृत्व में बनाए आधुनिक संविधान के पक्ष में कभी नहीं रही, क्योंकि उसे आधुनिकता नहीं, पुरातनता ही भाती है। लोकतंत्र, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय आदि आधुनिक अवधारणा है। संघी गिरोह को राजतंत्र, पूंजीवाद, धार्मिक वैमनस्यता, वर्ण व्यवस्था सुहाती है, क्योंकि उनकी फासीवादी-वैचारिक परियोजना 'हिंदू राष्ट्र' के ये प्रमुख तत्व है। ये अवधारणाएं पुरातन का, एक पिछड़े समाज का, आर्थिक असमानता की हामी का और जातिवादी शोषण का प्रतिनिधित्व करती है। इन तमाम तत्वों और अवधारणाओं का सार मनुस्मृति है। संघी गिरोह बाबा साहेब के संविधान की जगह मनुस्मृति को लागू करना चाहता था। इसलिए आजादी के बाद उसने संविधान, तिरंगे -- इन सबका विरोध किया था। उनका विरोध नहीं था, तो केवल अंग्रेजों से, जो देश को अपनी औपनिवेशिक लूट का अड्डा बनाए हुए थे। सभी जानते है कि राष्ट्रभक्ति का प्रमाणपत्र बांटने वाली यह कौम अंग्रेजों की छत्रछाया में, उनके आशीर्वाद और पेंशन की कृपा से ही पली-बढ़ी है। यही कारण है कि इस कौम में आजादी का कोई वीर सेनानी नहीं मिलता। जो भी मिलते हैं, आपातकाल में जेलों से माफीनामा लिखकर बाहर आए हुए और देश की 'दूसरी आज़ादी' के नाम पर पेंशन खाते हुए भड़वों की फौज में शुमार शातिर लोग ही मिलते हैं।
यह लंबी और तीखी टिप्पणी इसलिए कि एक बार फिर यह गिरोह केंद्र में मोदी की सत्ता की ताकत के बल पर अपने बिलों से बाहर आकर कुलबुलाने लगे हैं। हाल-फिलहाल उनके शीर्षस्थ नेता दत्तात्रेय होसबोले ने फिर मांग की है कि संविधान की प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्दों को निकाल दिया जाना चाहिए। हमारे देश के स्वनामधन्य उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी कल दिल्ली में एक कार्यक्रम में बोलते हुए होसबोले की इसी बात को दुहराया है। यह इस बात का प्रतीक है कि हमारी राजसत्ता पर फासीवादियों की पकड़ कितनी मजबूत होती जा रही है। अब उनमें अपनी खिसकती चड्डी से झांकते अंगों को ढांपने की शर्म भी नहीं बची है।
संघ-भाजपा के केंद्र सरकार में पिछले 11 सालों के निरंतर राज में और अगले चार सालों तक उनके संभावित राज में भी भारत का हिंदू राष्ट्र बनना उनके लिए आज भी दूर की कौड़ी है। हिंदू राष्ट्र की स्थापना के लिए उनका घोषित लक्ष्य वर्ष 2025 था। यह आरएसएस की स्थापना का शताब्दी वर्ष भी है। लेकिन वे इस दिशा में आगे बढ़ते, उससे पहले ही पिछले चुनाव में उन्हें आम जनता ने लंगड़ी मार दी और बहुमत को उनके पैरों के नीचे से खींच लिया। राम जाने, आगे और कौन-कौन से दिन दिखेंगे! लेकिन यह स्पष्ट है कि जब तक यह आधुनिक संविधान है, उसको कमजोर करने की कितनी भी कोशिश की जाए, उनका ध्येय सिद्ध होने वाला नहीं, क्योंकि कमजोर से कमजोर संविधान भी उनके हिन्दू राष्ट्र का पक्ष पोषण नहीं कर सकता, उसके लिए तो समूचे संविधान को ही उखाड़कर फेंकना होगा।
असली सवाल यही है कि क्या यह संभव है? क्या यह धरती के उस टुकड़े पर संभव है, जहां पूरी दुनिया की सभ्यता आकर विलीन हो गई और गंगा-जमुनी तहजीब के रूप में बहने लगी, जहां राजाओं के साम्राज्य विस्तार के तमाम युद्ध कभी धार्मिक युद्धों में नहीं बदल पाए, जहां उपनिवेशवाद के दौरान उनका साझा दुश्मन अंग्रेजी राज और साम्राज्यवाद रहा, जिसके खिलाफ लड़ते हुए हम सबके पूर्वजों की हड्डियां इसी धरती में गलकर खाद बन गई। आंबेडकर का संविधान आदिकालीन भारत से एक आधुनिक भारत के निर्माण की चरम अभिव्यक्ति है, जिसे तोड़ा मरोड़ा जा सकता है, कतरा भी जा सकता है, लेकिन इसे उखाड़कर समूल नष्ट नहीं किया जा सकता।
इंदिरा गांधी के घोषित आपातकाल ने संविधान को कमजोर करने, मौलिक अधिकारों को निलंबित करके उसे देश की जनता से छीनने की कोशिश की, लेकिन इसी संविधान ने इंदिरा की तानाशाही सत्ता को उजाड़कर भी फेंक दिया। लेकिन इंदिरा गांधी ने अपनी तमाम करतूतों के बावजूद इस देश को कभी हिन्दू राष्ट्र की ओर धकेलने की कोशिश नहीं की थी। आज संघी गिरोह इंदिरा गांधी के घोषित आपातकाल की आलोचना के बहाने अपने अघोषित आपातकाल के बारे में जनता को गुमराह करना चाहता है, जबकि आज मोदी के फासीवादी राज में संविधान और आम जनता के अधिकारों पर पहले की तुलना में गमले कहीं ज्यादा तेज है और धर्मनिरपेक्षता को उखाड़कर हिंदू राष्ट्र बनाने की मुहिम को खुले आम आगे बढ़ाया है रहा है। इस रास्ते को आसान बनाने के लिए देशी विदेशी कॉरपोरेटों के साथ गठजोड़ किया जा रहा है और देश की तमाम संपदा को उन्हें सौंपने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा रहा है।
हिटलर ने अपने फासीवाद को आगे बढ़ाने के लिए यहूदियों को अपना मुख्य दुश्मन मानकर छद्म राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काया था। संघी गिरोह इसी हिटलर का मानस पुत्र है। उसने अल्पसंख्यकों और कम्युनिस्टों को अपने निशाने पर रखा है। लेकिन इस देश का संविधान, इस देश का सामाजिक ताना-बाना, इस देश की सांझी संस्कृति -- संघियों के इरादे पर रह-रहकर पानी फेर देती है। बहुरंगी भारतीय सभ्यता को कुचलकर उसे एकांगी और एकरंगी हिंदू असभ्यता में बदलने की कोशिश तब तक सफल नहीं होगी, जब तक आंबेडकर का संविधान कायम है। इस संविधान को बचाए-बनाए रखने की लड़ाई वास्तव में अंग्रेजों से हासिल आजादी को बचाए-बनाए रखने की लड़ाई है।
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2. हिंदी तो क्या, किसी भी भाषा को थोपना गलत!
हिंदी का विवाद दक्षिण भारत के राज्यों से चलकर अब महाराष्ट्र तक आ पहुंचा है। यदि यह गुजरात, पंजाब, असम, ओडिशा और बंगाल में भी फैल जाएं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। इस देशव्यापी भाषाई विवाद के लिए केंद्र की मोदी सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। असल में उसकी नीति ही है -- आम जनता में फूट डालो और हिंदुत्व का रास्ता आसान बनाओ। इस नीति से संघ भाजपा का भला हो सकता है, सत्ता पर उसकी पकड़ मजबूत हो सकती है, लेकिन विविधता में एकता की भावना की जिस डोरी से बंधा है, वह भावना मजबूत नहीं हो सकती, देश की एकता मजबूत नहीं हो सकती।
हमारा देश विविधता और बहुलता का प्रतिनिधित्व करता है। यह विविधता न केवल खान-पान और रहन-सहन में प्रतिबिंबित होती है, बल्कि भाषाओं, उप-भाषाओं और बोलियों में भी झलकती है। आज भी हमारे देश में ऐसी भाषा/बोलियां हैं, जिनके पास न कोई लिपि है और न वैज्ञानिक ढंग से परिष्कृत व्याकरण। तो क्या हमें ऐसी भाषाओं/बोलियों को कुचल देना चाहिए?
हमारा संविधान देश की सभी भाषाओं की बराबरी की कल्पना करता है और भाषाई आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव और नफरत को तिरस्कृत करता है। चूंकि हिंदी इस देश में सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है, इसलिए संविधान में इसे राजभाषा बनाने की कल्पना की गई है। लेकिन हमारे देश के सत्ताधारियों की अदूरदर्शिता के कारण हिंदी को यह गौरव अभी तक प्राप्त नहीं हो पाया है और राज काज की भाषा पर अंग्रेजी ही हावी है। आज भी हिंदी हमारे देश की अन्य भाषाओं की तुलना में सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़ी भाषा है, ऐसी दुर्गति हिंदी की है। भाषा आजीविका का बहुत बड़ा साधन होता है, लेकिन हिंदी प्रदेशों को छोड़कर अन्य राज्यों में हिंदी इस जगह को पाने से बहुत दूर है।
त्रिभाषा फार्मूला के रूप में केंद्र सरकार ने जिस शिक्षा नीति को आगे बढ़ाया है, वह हमेशा से विवादास्पद रही है और उसने उत्तर बनाम दक्षिण के विवाद को जन्म दिया है और गैर-हिन्दी भाषियों के मन में इस आशंका को जन्म दिया है कि उन पर हिंदी थोपी जा रही है और उनकी मातृभाषा को दबाने की कोशिश हो रही है। इस शंका आशंका कुशंका के कुछ वास्तविक कारण भी हैं, जिन्हें केंद्र सरकार भी जानती है। लेकिन इसका समाधान करने की कोशिश इसलिए नहीं की गई कि आजादी के बाद देश की राजनीति में वर्चस्व अमूमन उत्तर का और हिंदीभाषियों का ही रहा है।
त्रिभाषा फार्मूला मोटे रूप में इस प्रकार है : राज्य की भाषा + अंग्रेजी + दक्षिण में हिंदी/उत्तर में संस्कृत। राज्यों की भाषा के बाद अंग्रेजी चूंकि अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, इसलिए उस पर कोई विवाद नहीं है। अंग्रेजी उपनिवेशवाद ने इस भाषा को पढ़े-लिखों और धनाढ्य वर्ग की भाषा बना दिया था, जिसे हमारी आजाद सरकारों ने और ज्यादा सर्वस्वीकृत बनाया और जन मानस में इस धारणा को मजबूत किया कि अंग्रेजी के बिना कोई तरक्की संभव नहीं है। अब सवाल तीसरी भाषा का है। दक्षिण में यदि आप हिंदी को अनिवार्य कर रहे हैं, तो भाषाई समानता की अवधारणा यही कहती है कि उत्तर में भी किसी दक्षिण भारतीय भाषा का पठन-पाठन हो, और इसमें कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन उत्तर में संस्कृत पढ़ाना केंद्र सरकार की नेकनीयती पर सवाल खड़े करता है, क्योंकि संस्कृत का आप चाहे जितना भी गौरवगान कर लें, उसे सभी भाषाओं की जननी का छद्म दावा कर लें, वास्तविकता यही है कि आज वह न बोलचाल की भाषा है और न आजीविका की। अतीत में भी संस्कृत आम जनता की नहीं, पुरोहितों की भाषा थी। आज का संस्कृत साहित्य किसी भी भारतीय भाषा, और हिंदी के मुकाबले भी, कहीं नहीं टिकता। इसलिए उत्तर में भी संस्कृत की कोई उपादेयता नहीं है।
इसलिए यह स्वाभाविक है कि यदि उत्तर में दक्षिण की भाषा से दूरी बरती जाएगी, तो दक्षिण भी हिंदी को सहज ढंग से स्वीकार नहीं करेगा और हिंदी की अनिवार्यता को उन पर हिंदी थोपने के रूप में ही लेगा।
राकेश अचल ने अपने नियमित लेखन में इस बात को दर्ज किया है कि तमिलनाडु में हिंदी सीखने की रुचि बढ़ रही है। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के अनुसार, 2022 में 2.86 लाख लोग हिंदी की परीक्षा में शामिल हुए, जिनमें 80 फीसदी स्कूली छात्र थे। तमिल फिल्मों को हिंदी में डब करने की अनुमति से हिंदी सीखने की बढ़ती मांग का पता चलता है। यह किसी भाषा के सहज विकास का संकेत है और दक्षिण में हिंदी की ग्राह्यता इसी सहज तरीके से संभव है, किसी पर थोपकर नहीं।
लेकिन जो संघी गिरोह एक देश, एक चुनाव, एक टैक्स की तरह एक भाषा की तरफ बढ़ना चाहता है और हिंदी को थोपकर हिंदुस्तान में हिंदुत्व की राजनीति को आगे बढ़ाना चाहता है, वह न हिन्दी का भला कर रहा है और न किसी अन्य भाषा का। फासीवादी तानाशाही के रास्ते पर चल रही यह सरकार हिंदी की अनिवार्यता थोपकर गैर-हिंदीभाषियों पर हिंदी की तानाशाही थोपना चाहती है। जनतांत्रिक प्रणाली पर विश्वास रखने वाला कोई भी व्यक्ति हिंदी तो क्या, किसी भी भाषा को थोपने की तानाशाही को कभी स्वीकार नहीं करेगा।
(टिप्पणीकार अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।)