नागरिक परिक्रमा

1. डंडा ऊंचा रहे हमारा
मध्यप्रदेश पुलिस के हिंदुत्वीकरण का जिम्मा अब राजा बाबू को सौंप दिया गया है। जिस प्रकार किसी फिल्म का गाना "छैला बाबू छैला" काफी प्रचलित हुआ था, उसी तर्ज पर आज मध्यप्रदेश में ये राजा बाबू प्रसिद्धि कमा रहे हैं। हवा में तैर रहे वीडियो में वे पुलिस आरक्षकों को रोज सोने से पहले रामचरित मानस के दो अध्याय पढ़ने का परामर्श दे रहे हैं। ऐसा परामर्श संविधान से निकल रहा है या किसी कानून से, इस सवाल पर प्रदेश की पूरी भाजपा सरकार मौन है। लेकिन इस बात पर गदगद है कि हर पुलिस लाइन और कार्यालय में हनुमानजी की पूजा वंदना के साथ रामजी भी मानस के रूप में विराजमान होंगे। स्वाभाविक है कि जब पुलिस राम की शरण में जाएगी, तभी आम जनता को भी रामगति प्राप्त होगी। राम की चेतना और हनुमान की वीरता से लाठीधारियों में ऊर्जा का जो प्रस्फुटन होगा, वह अदभुत नजारा पेश करेगी। आखिर राम नाम ही सत्य है।
राजा बाबू मध्यप्रदेश में अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (ट्रेनिंग) हैं। उनकी सबसे बड़ी कीर्ति यह है कि वे 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस के संघी यज्ञ में एक कारसेवक के रूप में अपनी आहुति दे चुके हैं। यह बात उन्होंने खुद अपनी जुबान से स्वीकार की है। इसलिए उन्हें इस अपराध में जेल में होना चाहिए था, क्योंकि अपने निर्णय में बाबरी मस्जिद विध्वंस को सुप्रीम कोर्ट ने अपराध माना है। लेकिन वे बाहर है और दिल्ली में बीएसएफ मुख्यालय से जम्मू-कश्मीर में आईजी बीएसएफ और आईटीबीपी से होते हुए यहां तक पहुंचे हैं। इसका कारण भी साफ है कि इस देश में सुप्रीम कोर्ट से ऊपर भी एक सुपर कोर्ट है, रामजी की कोर्ट। वहीं रामजी, जो श्रीमान चंद्रचूड़ के सपने में आकर निर्देशित कर चुके हैं कि भले ही सुप्रीम कोर्ट बाबरी मस्जिद ध्वंस को पाप और अपराध बताए, सुपर कोर्ट की आज्ञा है कि इस जमीन पर राम मंदिर बनाकर पुण्य कमाओ। राम युग चेतना के प्रतीक हैं, भला चंद्रचूड़ इस युगांतरकारी क्षण का माध्यम बनने से कैसे इंकार करते! उन्होंने वही निर्णय दिया, जो रामजी की इच्छा थी। रामजी की कृपा से अल्लाह पर भगवान भारी पड़े और राम मंदिर के निर्णय से उनके हिस्से इतना पुण्य आया है कि अब चंद्रचूड़ उपराष्ट्रपति बनने की दौड़ में शामिल हो गए हैं। राजा बाबू जानते हैं कि रामजी खुश, तो ऊपर वाले सभी खुश। इसीलिए वे सालों से रामजी को खुश करने की कोशिश कर रहे हैं। जब वे ग्वालियर में एडीजी थे, तब उन्होंने पुलिस कर्मियों के बीच भगवतगीता बंटवाने का महान कार्य किया था, अब रामचरित मानस पढ़वाने के लिए दंड पेल रहे हैं। राजा बाबू की मेहनत सफल हुई, तो आने वाले दिनों में आंबेडकर के संविधान की जगह गीता और रामायण ही लेगी, अभी भी वे मौखिक रूप से भाजपाई राज्यों में राष्ट्रीय ग्रंथ तो हैं ही। संविधान का दर्जा पाने के लिए उन्हें एक-दो सीढियां ही तो और चढ़नी है। इस चढ़ाई के लिए राजा बाबू के मजबूत कंधे हाजिर हैं।
गीता और मानस के जरिए पुलिस ट्रेनिंग का यह अदभुत उपक्रम है। हमारी पूरी संस्कृति इसी पर टिकी है। रामचरित मानस में तुलसीदास बता गए हैं : ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी। अब हमारे लाठीधारियों को साफ समझ लेना चाहिए कि उसका लट्ठ चलना किस पर है। लट्ठ चलेगी कमेरों पर, न कि लूटेरों पर। जो कहेगा - कमाने वाला खायेगा, लूटने वाला जायेगा - अब उस पर चलेगी लट्ठ। बचपन में हम सब बच्चे खेल-खेल में समवेत स्वर में गाते थे : डंडा ऊंचा रहे हमारा, विजयी विश्व लठंगा प्यारा!! वे दिन स्कूल के मस्ती भरे दिन थे। तब पता नहीं था कि हमारे बचपन के इंदिरा राज का तिरंगा झंडा बुढ़ापे में मोदी राज के आते-आते डंडा और लठंगा में बदल जाएगा और हमारे हमारे विश्व गुरु बनने का मार्ग प्रशस्त करेगा। झंडा का डंडा में और तिरंगा का लठंगा में बदलना ही सही विकास है। इतना विकास नहीं होता, तो हम इंदिरा गांधी की इमरजेंसी से ही चिपके रहते और अपने बचपने से कभी बाहर नहीं निकल पाते।
गीता का संदेश है : कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन -- कर्म करो, फल की चिंता मत करो। पुलिस का काम है लाठी चलाना। लाठी किस पर चलेगी, तुलसीदास बता गए हैं। फिर लाठी चलेगी, तो सिर भी फूटेंगे। सिर फूटेंगे, तो खून बहेगा। खून बहेगा, तो अस्पताल ले जाना पड़ेगा, मरहम-पट्टी होगी। लाठी चलेगी, तो फूटने वाला सिर मेरे मां-बाप का भी हो सकता है, बहने वाला खून मेरे भाई-बहन का भी हो सकता है। अस्पताल टाटा-बिड़ला या अडानी-अंबानी का भी हो सकता है, जो मेरे निकटजनों की मरहम-पट्टी करने से ही इंकार कर दें। इस प्रकार, कर्म एक है - लाठी चलाना, फल अनेक हैं, लेकिन सभी दुखदायी। गीता ही वह साहस देती है कि भले ही अपनों का सिर फूटे या बहे लहू, लाठी चलाने का कर्म निर्बाध और निष्काम भाव से करना है। जब तक आंबेडकर के संविधान की जगह मनुस्मृति को स्थापित नहीं कर देते, तब तक गीता और मानस से ही काम चलाना होगा। गीता और मानस चल गई, तो मनुस्मृति भी देर-सबेर आ ही जाएगी। वैसे भी अब आंबेडकर के संविधान को पूछता कौन है! लेकिन विपक्ष चिल्ला रहा है कि जो लोग मुस्लिम हैं, जो ईसाई हैं, जैन और बौद्ध हैं, वे क्यों रामचरित मानस बाँचेंगे? अब मोदी राज का उत्तर भी साफ है : नहीं बाँचना, तो नौकरी छोड़ो। वैसे भी देश में वे सब हिंदुओं के बीच बेरोजगारी बढ़ा रहे हैं। मानस विरोधी विधर्मियों को नौकरी देने में सरकार की कोई रुचि नहीं है। इस देश में रहकर नौकरी करना है, अपना पेट पालना है, तो हिंदू संस्कृति से एकमेक होना ही पड़ेगा। इसकी शुरुआत मानस बाँचने से की जा सकती है। राम सबके आराध्य जो हैं।
संविधान कहता है कि राज्य का स्वरूप धर्मनिरपेक्ष होगा और कानून की नज़रों में सभी नागरिक एक समान होंगे। जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र और लिंग के आधार पर किसी से कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। लेकिन यह संविधान संघी गिरोह की आत्मा के खिलाफ है। संघी गिरोह की आत्मा हेडगेवार, गोलवलकर, सावरकर और गोडसे जैसे महानुभावों में बसती है। वे आंबेडकर के संविधान के साथ नहीं थे, मनुस्मृति के साथ थे। आंबेडकर के साथ होते, तो वे गांधीजी की हत्या नहीं करते और न गोडसे को पूजते। गांधीजी का गीता और रामायण पर विश्वास था, लेकिन वे नमाज के खिलाफ नहीं थे। होते तो, "ईश्वर अल्लाह तेरो नाम" नहीं गाते। आंबेडकर भी संघी गिरोह के साथ नहीं थे। होते तो, हिंदू राष्ट्र को सबसे बड़ी आपदा नहीं बताते। संघी गिरोह की हिंदुत्व की विचारधारा के खिलाफ आंबेडकर भी थे और गांधीजी भी ; इसलिए ये दोनों उनके सबसे बड़े दुश्मन भी हैं। देश की बहुमत जनता भी हिंदुत्व की विचारधारा के खिलाफ है, इसलिए आम जनता से भी उनकी दुश्मनी जगजाहिर है। इस जनता को कुचलने के लिए पुलिस चाहिए। इस पुलिस को अपनी जनता पर लाठी चलाने के लिए और अपने लोगों के प्रति संवेदनहीन बनाने के लिए 'कर्म करो, फल की चिंता मत करो' का पाठ चाहिए। राजा बाबू यह पढ़ा रहे हैं, तो यकीन मानिए, कि रामजी की कृपा से उनकी तरक्की के रास्ते खुले हुए हैं, वैसे ही जैसे चंद्रचूड़ के रास्ते खुले हुए हैं। रामजी सबका ख्याल रखते है और सबसे बढ़कर अपना ख्याल रखते हैं। इसके बावजूद, जो रामजी का खयाल रखते हैं, मोदी-यादव की सरकार उनका पूरा खयाल रखती है। राजा बाबू के लिए मंत्री-संत्री की एक उचित और उपयुक्त पोस्ट की खोज जारी है, ताकि सेवानिवृत्ति के बाद वे संपूर्ण बेरोजगार की जगह संपूर्ण रोजगारशुदा रहे और संविधान को चींथने का काम बदस्तूर जारी रखे।
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2. जम्मू कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा देने में भाजपा की वादाखिलाफ़ी
एक खंडित राज्य और केंद्र शासित प्रदेश के रूप में जब जम्मू-कश्मीर की विधान सभा का चुनाव हुआ, नेशनल कॉन्फ्रेंस और उसके सहयोगियों को स्पष्ट बहुमत मिला और भाजपा को भारी हार का सामना करना पड़ा था। इस चुनाव में भाजपा की यह हालत थी कि ब्रह्मांड की यह सबसे बड़ी पार्टी कश्मीर घाटी में अपने उम्मीदवार उतारने की भी स्थिति में नहीं थीं।
इन चुनावों में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने जम्मू-कश्मीर को विशेष और पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने, राष्ट्रपति शासन के समय लिए गए जन विरोधी फैसलों को बदलने और राजनीतिक कैदियों की रिहाई जैसे वादे किए थे। नेशनल कॉन्फ्रेंस की जीत से यह साबित हो गया कि जम्मू-कश्मीर की जनता भी यही चाहती है और उसने इन वादों को पूरा करने की जिम्मेदारी इस पार्टी को सौंपी है। केंद्र में काबिज संघ-भाजपा की मोदी सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट को वचन दिया था कि जम्मू-कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाएगा। इस वादे के मद्देनजर नेशनल कॉन्फ्रेंस ने भी केंद्र सरकार के साथ किसी भी टकराव को टालने की अभी तक कोशिश की थी, क्योंकि उसे विश्वास था कि देर सबेर राज्य के प्रशासन पर लेफ्टिनेंट गवर्नर का नहीं, उसका पूर्ण नियंत्रण होगा।
लेकिन विधान सभा चुनाव के लगभग एक साल बाद भी मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट को दिए गए अपने इस वचन के प्रति ईमानदार नहीं दिखती। ठीक ऐसा ही वादा उसने आम जनता से दिल्ली के लिए किया था, जिससे बाद में वह पूरी तरह मुकर गई। ऐसी ही वादाखिलाफी अब वह कश्मीर की जनता के साथ वह कर रही है। नतीजे में, जनता द्वारा निर्वाचित राज्य सरकार का केंद्र द्वारा मनोनीत लेफ्टिनेंट गवर्नर के कार्यालय से टकराव बढ़ रहा है।
यह टकराव उस समय तीखे रूप में सामने आया, जब 12 जुलाई को समूची राज्य सरकार और सत्ता पक्ष के नेताओं को नजरबंद कर लिया गया और उनके घरों के दरवाजों पर ताले जड़ दिए गए। माकपा के विधायक मोहम्मद यूसुफ तारीगामी भी इस नजरबंदी के शिकार हुए। 13 जुलाई को पूरे जम्मू-कश्मीर में शहीदी दिवस के रूप में मनाया जाता है, क्योंकि 1931 में महाराजा हरीसिंह के शासन के खिलाफ विद्रोह के जवाब में श्रीनगर सेंट्रल जेल में पुलिस की गोलीबारी में 22 लोग मारे गए थे, जिन्हें बाद में नक्शबंद साहब दरगाह के कब्रिस्तान में दफनाया गया था। 2019 से पहले इस दिन जम्मू-कश्मीर में सरकारी अवकाश रहता था, ताकि आम जनता बिना किसी बाधा के शहीद दिवस का पालन कर सकें। अगले दिन 14 जुलाई को जब मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और उनका मंत्रिमंडल वहाँ फातिहा पढ़ने गए, तो पुलिस ने फिर उन्हें रोका, जिससे टकराव की स्थिति बनी। मोदी सरकार द्वारा समूचे राज्य सरकार को नजरबंद करना और राज्य की जनता को शहीदी दिवस का पालन करने से रोकना यह बताता है कि मोदी राज में लोकतंत्र कितने निचले स्तर पर पहुंच गया है।
मोदी सरकार अभी भी उस राजा हरीसिंह की राजभक्ति में डूबी है, जिसे अपने ही नागरिकों पर गोलियां चलाने में कोई हिचक नहीं हुई थी। आजादी के पहले संघी गिरोह की अंग्रेजों के प्रति स्वामिभक्ति और रियासत के राजाओं के प्रति राजभक्ति किसी से छुपी हुई नहीं है। यह सरदार वल्लभभाई पटेल थे, जिन्होंने इस देश के 500 से ज्यादा रियासतों का भारतीय संघ में एकीकरण किया था, लेकिन राजा हरी सिंह, जो संघी गिरोह के समर्थक थे, ने एकीकरण की इस प्रक्रिया में शामिल होने से इंकार कर दिया था। जब पाकिस्तानी कबाईलियों ने इस रियासत को पाकिस्तान में मिलाने के लिए इस पर हमला किया, वे अपनी रियासत की रक्षा करने के बजाय भाग खड़े हुए थे। तब शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में कश्मीर की जनता ने पाकिस्तानी हमले का मुकाबला किया था। इस प्रक्रिया में ही कश्मीर रियासत का भारत में विलय हुआ था और संविधान का अनुच्छेद 370 अस्तित्व में आया था, जिसे भाजपा ने कपटपूर्ण तरीके से हटाया है। अब यह साफ है कि भाजपा कॉरपोरेट लूट के लिए कश्मीर की भूमि तो चाहती है, लेकिन कश्मीर के अवाम को नहीं। शहीदी दिवस के खिलाफ भाजपा का खड़ा होना इसी बात का प्रतीक है। यह इतिहास का स्वीकृत तथ्य है कि जिस समय डोगरा राजा हरीसिंह जम्मू कश्मीर के भारत में विलय के सवाल पर सरदार पटेल के खिलाफ खड़े थे, संघी गिरोह राजा हरिसिंह के साथ खड़ा था।
धारा 370 के हटाने से आतंकवाद के खात्मे के भाजपाई दुष्प्रचार की पहलगाम की घटना से हवा निकल गई है। जिन आतंकवादियों ने ये घृणित हरकत की, वे आज भी मोदी सरकार की पकड़ से बाहर है। पाकिस्तान से भारत ने जो सीमित युद्ध किया, उससे न माया मिली है न राम। उल्टे अपनी करनियों से हम पड़ोसियों और मित्र देशों से अलग थलग ही हुए हैं। इसलिए जरूरी है कि कश्मीर घाटी में आम जनता का विश्वास अर्जित किया जाएं। इसके लिए इस केंद्र शासित प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा देना और राज्य सरकार की स्वायत्तता को बहाल करना बहुत जरूरी है।
(टिप्पणीकार अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।)