नागरिक परिक्रमा

संजय पराते की राजनैतिक टिप्पणियां
1. जीएसटी : बाल उखाड़कर मुर्दे को हल्का करने की कोशिश
अपने कुकर्म को छिपाकर उसे 'उत्सव' में बदलने की कला में कोई पार्टी माहिर है, तो उस पार्टी का नाम भारतीय जनता पार्टी है। उसे न तो जुमलेबाजी करते शर्म आती है और न ही बड़ा गप्प (झूठ) बोलने में। यही इस पार्टी का चाल, चरित्र, चलन है।
नोएडा में इंडिया एक्सपो मार्ट में बोलते हुए परिधान मंत्री ने महंगाई के लिए कांग्रेस पर दोष लगाया, जबकि वे पिछले 11 सालों से राज कर रहे हैं और इन 11 सालों में कोई भी रोजमर्रा का सामान सस्ता होना तो दूर, बल्कि 2014 की तुलना में उसका दाम कम से कम दुगुना जरूर हो गया है।
उपभोक्ता मामलों के विभाग के अनुसार, 2014/ अगस्त 2025 में दैनिक उपयोग की वस्तुओं की कीमतें इस प्रकार थीं : मूंग दाल -- 97.26 रुपये/ 112 रूपये प्रति किलोग्राम, उड़द दाल -- 79 रुपये/ 140 रुपये, अरहर दाल -- 75.83 रुपये/ 145 रुपये, आटा -- 21 रूपये/ 37 रुपये, शक्कर -- 26 रूपये/ 50 रुपए प्रति किलोग्राम था। पेट्रोल की कीमत 73.16 रुपये/ 100 से107 रुपए प्रति लीटर थी और डीजल 55.48 रुपये/ 93 से 96 रुपए प्रति लीटर था।
नॉन-बायोलॉजिकल परिधान मंत्री को अर्थशास्त्र का यह छोटा सा सूत्र भी नहीं मालूम कि महंगाई दर में वृद्धि का कम होना (जिसका दावा अक्सर उपभोक्ता मामलों का विभाग करता रहता है), महंगाई का कम होना नहीं होता। यदि महंगाई कम हुई होती, तो सरकारी कर्मचारियों को महंगाई भत्ता देने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
2017 में भी महंगाई कम होने का जोर-शोर से उस समय ऐलान किया गया था, जब पूरे देश में 'एक देश, एक टैक्स' के रूप में जीएसटी लागू किया गया था। तब इसी भाजपा ने जीएसटी को महंगाई के खिलाफ रामबाण औषधि बताया था। लेकिन 8 साल बाद इसी सरकार को स्वीकार करना पड़ा है कि इस औषधि से महंगाई कम नहीं हुई है। अब चार स्लैबों में लगने वाली जीएसटी को दो स्लैबों तक सीमित करके 'बचत उत्सव' मनाया जा रहा है। इससे कुछ वस्तुओं के मूल्य में कमी जरूर आ सकती है, लेकिन यह आशा करना बेकार है कि महंगाई कम होगी और आम जनता की क्रय शक्ति बढ़ जाएगी।
पिछले 8 सालों में मोदी सरकार ने जीएसटी के रूप में 55 लाख करोड़ रुपयों से ज्यादा टैक्स बटोरा है -- यानी हर साल औसतन 7 लाख करोड़ रूपये। अब संशोधित जीएसटी से सरकार को लगभग 5 लाख करोड़ रुपए मिलेंगे और उसे लगभग 2 लाख करोड़ रुपयों का घाटा होगा। लेकिन यह इतनी बड़ी रकम नहीं है कि आम जनता की क्रय शक्ति में उछाल आ जाएं, क्योंकि यह सकल कर राजस्व का 10% से भी कम है। संशोधित जीएसटी से जिन वस्तुओं के दाम कम होने की आशा की जा रही है, उस पर सेस लगाने का अधिकार तो केंद्र के पास है ही। यदि राजस्व में होने जा रही कमी को वह चुपचाप सेस लगाने के जरिए पूरा करना चाहेगी, तो आम जनता को कुछ भी राहत नहीं मिलेगी। मोदी सरकार का यह मनपसंद रास्ता है, क्योंकि इससे होने वाली आय को राज्यों के साथ बांटना नहीं पड़ता।
'एक देश, एक टैक्स' का नारा लगाने वाली सरकार ने पेट्रोल-डीजल और अन्य पेट्रोलियम पदार्थों को जीएसटी के दायरे से बाहर रखा है। यदि पेट्रोलियम पदार्थों को जीएसटी के दायरे में लाया जाएं, तो बाजार में इसकी कीमत वर्तमान से आधी ही रह जाएगी। सभी जानते हैं कि बाजार की महंगाई में सबसे बड़ा योगदान पेट्रोल और डीजल की कीमतों का ही है, क्योंकि यह महंगाई में उत्प्रेरक का काम करती हैं। यदि मोदी सरकार महंगाई को कम करने के प्रति थोड़ी भी ईमानदार होती, तो वह पेट्रोल-डीजल को जीएसटी के दायरे में लाती। लेकिन वह ऐसा नहीं करेगी, क्योंकि इन पर अनाप-शनाप टैक्स लगाकर वह हर साल 6 लाख करोड़ रुपयों की कमाई कर रही है और अपने राजस्व घाटे को पूरा कर रही है। इसका अर्थ है कि संशोधित जीएस से आम जनता को जितना राहत मिलने का सरकार दावा कर रही है, पेट्रोल डीजल की बढ़ी चढ़ी कीमतों के जरिए उससे तीन गुना ज्यादा वसूल कर रही है।
जीएसटी से मिलने वाली राहत की तुलना ट्रंप के टैरिफ से होने वाली मुसीबत से की जाए, तो यह राहत भी पानी में जाती नजर आती है, क्योंकि इस टैरिफ से जो महंगाई और बेरोजगारी पैदा हो रही है और आम जनता की क्रय शक्ति में जो भारी गिरावट आने वाली है, उसके मुकाबले राहत के ये छींटे कहीं नजर नहीं आएंगे।
यदि मोदी सरकार अर्थव्यवस्था के इस संकट से जरा भी चिंतिंत होती, तो बचत उत्सव का नाटक नहीं करती। लेकिन मोदी की चिंता तो वे कॉर्पोरेट हैं, जिन पर वह इस देश की संपदा लुटा रही है।
****
2. जोर का झटका जोर से
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अपना घरेलू बाजार बचाने और दूसरों का बाजार हड़पने की जिस नीति पर चल रहे हैं, वह केवल अमेरिकी अर्थव्यवस्था के साथ साथ पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को संकट में डालने वाला है। अब अमेरिका दुनिया से अलग कोई ग्रह तो है नहीं कि दुनिया संकट में फंसे और अमेरिका पर उसका कोई असर ही न पड़े। सभी देश अमेरिका की बाजार हड़प नीति के खिलाफ, दुनिया को संकट से बाहर निकालने के लिए मिल-जुलकर बचाव और सुरक्षा के रास्ते खोज रहे हैं। लेकिन ऐसा नहीं लगता कि भारत इस सबसे चिंतित है, क्योंकि इसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बकलौली में ही मस्त है। ऊपर से नीचे तक विदेशी वस्तुओं से लदकर वे देश को स्वदेशी का मंत्र जपने को कह रहे हैं!
जब इधर वे स्वदेशी से आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ा रहे थे, तभी उधर से वार हुआ और ट्रम्प ने अमेरिका फ़र्स्ट का नारा बुलंद करते हुए एच-1 बी वीज़ा पर एक लाख डॉलर (करीब 88 लाख रुपए) की फ़ीस लगाने का ऐलान कर दिया। यह भारी-भरकम फीस अमेरिकी श्रमिकों की रक्षा करने और वीज़ा सिस्टम के ग़लत इस्तेमाल को रोकने, योग्य पेशेवरों को ही अमेरिका में घुसने देने के नाम पर लगाया गया है। अमेरिका के वाणिज्य मंत्री हॉवर्ड लटनिक ने अमेरिकी उद्योगपतियों से कहा है कि "अमेरीकी लोगों को प्रशिक्षित करो। बाहर से लोगों को लाकर हमारी नौकरियां छीनना बंद करो।"
जब वैश्वीकरण की नीति लागू की जा रही थी, तो यही अमेरिका दुनिया को समझा रहा था कि सूचना और प्रौद्योगिकी विकास के चलते पूरी दुनिया एक गांव में तब्दील हो गई हैं और भविष्य में राष्ट्र की सीमाएं भी निरर्थक हो जाएंगी। इसलिए व्यापार पर लगे प्रतिबंधों को खत्म करने और वस्तुओं की आवाजाही को बेरोकटोक सुनिश्चित करने की जरूरत है, ताकि दुनिया के सभी लोगों की सभी जरूरतें आसानी से पूरी की जा सके। दिखने में यह सिद्धांत तो बड़ा मासूम और निर्दोष लगता था, लेकिन वास्तव में यह तब अमेरिकी पूंजी के लिए मुनाफे का रास्ता खोलने का मंत्र था।
बहरहाल, दुनिया हमेशा एक जैसी नहीं रही है और अमेरिका की मर्जी के हिसाब से ढली भी नहीं है। उसकी स्वतंत्र गति है, जो न ट्रंप की इच्छा से नियंत्रित होती है और न ही मोदी की सदिच्छा से। दोनों की दोस्ती से भी इस गतिकी पर कुछ खास फर्क नहीं पड़ता, और तब तो और नहीं, जब भारत नामक किसी देश के प्रधानमंत्री में अमेरिकी फैसले का प्रतिवाद करने का साहस न हो और इस कायरता को छुपाने के लिए वह बकलौली की वीरता का दिखावा करते हुए घूमे।
एच-1 बी वीज़ा पर एक लाख डॉलर (करीब 88 लाख रुपए) की फ़ीस लगाने के ट्रंप प्रशासन के फैसले से भारत में अफरा तफरी मची हुई है। यह अफरा तफरी जनजीवन से लेकर औद्योगिक जगत तक फैल चुकी है। विभिन्न स्तरों पर हाल-फिलहाल अमेरिका की यात्रा पर न जाने की सलाह दी जा रही है, मशविरे जारी किए जा रहे हैं। अमेरिका में एच-1 बी वीज़ाधारकों में भारतीयों की हिस्सेदारी 70 फ़ीसदी से ज्यादा है। लाखों भारतीय अमेरिका जाकर ही अपना जीवन सुधारने के सपने देखते हैं और अमेरिका में वैध या अवैध प्रवेश के लिए हर तरह का जोखिम उठाने को तैयार रहते हैं। अब लाखों परिवार इस चिंता में हैं कि अमेरिका में रहें या नहीं, या भारत लौटने पर उनकी नौकरी और पढ़ाई की क्या सुविधा रहेगी। वीज़ा नियमों में बदलाव का सीधा असर भारत के टेक सेक्टर और प्रोफेशनल्स पर पड़ने वाला है। सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग अब सोच में पड़ गया है कि कैसे इस चुनौती का सामना करे। लेकिन इन सब को नज़रंदाज़ करते हुए मोदी चुप हैं और स्वदेशी की बकलौली कर रहे हैं।
अब यह साफ हो जाना चाहिए कि ट्रंप के अमेरिकी राष्ट्रवाद का मुकाबला करने की ताकत संघी गिरोह के राष्ट्रवाद में नहीं है। वह अपनी कमजोरी को स्वदेशी की बकलौली में छुपाकर समय काटने की रणनीति पर चल रहा है और उसे आशा है कि भविष्य में अपने आप कुछ ऐसा हो जाएगा, जिससे संकट टल जाएगा और उसके हिंदू राष्ट्रवाद को उछाल मिलेगा। जबकि ऐसा कुछ होने नहीं जा रहा है। संकट तभी टलेगा, जब अमेरिकी साम्राज्यवाद से लड़ने की नीति बनाई जाएगी और इसके लिए विदेश नीति और घरेलू नीति में बड़े सुधार किए जाएंगे। विदेश नीति के क्षेत्र में आज हम अमेरिका की दुम से बंध गए हैं, जबकि घरेलू नीति अडानी अंबानी के मुनाफे से तय हो रही है। इस नीति को अलविदा कहना भाजपा और संघी गिरोह के बस की बात नहीं है। इसलिए यदि देश बचाना है और देश के आत्मसम्मान की रक्षा करना है, तो वोट चोरी पर टिकी इस साम्राज्यवादपरस्त और कॉर्पोरेटपरस्त संघी सरकार को ही अलविदा कहना होगा।
(टिप्पणीकार अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।)