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दाल देख और दाल का पानी देख!

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 दाल देख और दाल का पानी देख!

व्यंग्य-आलेख : संजय पराते

रोटी के साथ दाल मिलना भी अब नसीब की बात है। आज की ताजा खबर है कि बाजार में दाल का संकट आने वाला है, क्योंकि सरकारी दाल का भंडार खाली है। क्यों खाली है, इस पर टिप्पणी करेंगे ; लेकिन इसका मतलब यह है कि गरीबों को अब दाल-रोटी या दाल-भात खाने का सपना छोड़ देना होगा। हां, दाल की जगह नमक से काम चलाया जा सकता है। अधिकांश राज्य सरकारें राशन दुकानों से सस्ता आयोडीन नमक वितरित कर रही हैं और वोट लेने का नमक अदा कर रही हैं। नमक हलाली शायद इसी को कहते हैं कि दाल की जगह नमक परोसा जाएं!

हमारे देश के लोग हर साल 300 लाख टन दाल हजम कर जाते हैं। ये आंकड़ा कितना बड़ा है, इसकी पड़ताल करे, तो पता चलता है कि हर व्यक्ति रोज लगभग 60 ग्राम दाल चट कर जाता है। इतनी दाल!, फिर भी शिकायत यह कि दाल में पानी ज्यादा होता है। 

देश की 140 करोड़ की आबादी को दाल सहज-सुलभ हो, इसके लिए दाल का बफर स्टॉक कम से कम 35 लाख टन होना चाहिए। लेकिन नेफेड और राष्ट्रीय सहकारी उपभोक्ता फेडरेशन (एनसीसीसीसी) बता रहा है कि सरकार के गोदाम में केवल 14.5 लाख टन दाल ही बची है, जो कि न्यूनतम आवश्यकता का केवल 40% ही है। इसमें तुअर दाल 35000 टन, उड़द 9000 टन, चना दाल 97000 टन ही है, जिसे लोग खाने में सबसे ज्यादा पसंद करते हैं। इन दालों की जगह दूसरी दाल के इस्तेमाल के बारे में सोचें, तो मसूर दाल का स्टॉक भी केवल पांच लाख टन का ही बचा है। इसका अर्थ है कि आप जो भी दाल खाएं, उसमें पानी की मात्रा तिगुनी करनी होगी। फिर जो दाल बनेगी, उसमें दाल के कुछ कतरे ढूंढने की कसरत भी करनी होगी। मुफ्तखोर और काहिल जनता को कुछ काम भी मिल जाएगा। थक-हारकर धीरे से वह सरकार का नमक भी खाने लगेगी और अगले चुनाव में इस नमक का हक भी अदा करेगी। "नमक-नमक" का यह नमकीन खेल चलता रहेगा, लेकिन कुछ की थाली में दाल ही दाल होगी और पांचों उंगलियां और सिर डॉलर में। आज ऐसे धन-पिशाचों की संख्या 85-86 हजार है, तो कल 93-94 हजार होगी। हाल ही में जारी वेल्थ रिपोर्ट का यही आकलन है। करोड़ों की थाली का दाल कुछ हजारों की थाली में समा जाएगा, तो इन हजारों की थाली का नमक करोड़ों की रगों में बहेगा। पूरी दुनिया देखेगी कि दाल और नमक के बंटवारे से हमारे देश में देशभक्ति की कैसी लहर उठती है!! जो लोग आर्थिक असमानता का रोना रोते हैं, वे देखेंगे कि इस असमानता से कैसी सांस्कृतिक एकता पैदा होती है। तब उन्हें संस्कृति की ताकत का भान होगा और अपने तुच्छ माया-मोह पर पछतायेंगे।

लेकिन फिर भी देश की सांस्कृतिक एकता को खड़ा करने और प्रचंड देशभक्ति की लहरों को देखने के बजाय कुछ सिरफिरे सवाल खड़ा कर रहे है कि बफर स्टॉक में कमी क्यों? इसका सीधा-सा कारण है कि सरकार को बाजार में दाल मिल नहीं रही। क्यों नहीं मिल रही?, क्योंकि किसान सरकार को बेच नहीं रहा। क्यों बेच नहीं रहा?, क्योंकि उसे घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य से ज्यादा कीमत बाजार में मिल रही है। सरकार ने जिस अरहर की एमएसपी 7500 रूपये प्रति क्विंटल तय की है, बाजार उसे 10000 रुपये में खरीद रहा है। क्या यह 10000 रूपये सी-2 लागत के डेढ़ गुना से अधिक है? नहीं, वह ए-2 एमएसपी से कुछ अधिक तो है ही। फिर इस अधिक कीमत पर खरीद कौन रहा है? जी, कोचियों के जरिए कॉरपोरेट खरीद रहे हैं। क्या उन्हें इससे घाटा नहीं होगा? नहीं, वे और ज्यादा मुनाफा पीटने के लिए खरीद रहे हैं।

क्या कहा! अधिक कीमत पर खरीदकर वे और ज्यादा मुनाफा कमाएंगे? हां, जब सरकार के पास दाल नहीं होगी, तो अपने निजी स्टॉक के बल पर वे बाजार में दाल का कृत्रिम संकट पैदा करेंगे, इससे दाल की कीमतें बढ़ेगी, कालाबाजारी होगी तथा और ज्यादा मुनाफे की फसल लहलहाएगी। लेकिन यह गलत है, सरकार को कुछ करना चाहिए न?, सही बात है। सरकार ने घोषणा की है कि कुछ लाख टन दाल का वह आयात करने जा रही है।

लेकिन इतने से आयात से गरीब जनता का क्या होगा? होना क्या है जी, वह दाल देखेगी और दाल का पानी देखेगी। कुपोषित होगी और भूख से मरेगी। गरीब जनता होती ही है भूख से मरने के लिए। फिर चाहे वह आंबेडकर के जनतांत्रिक गणराज्य में मरें या संघ-भाजपा के हिन्दू राष्ट्र में, क्या फर्क पड़ता है? उसे तो वोट देकर नमक का हक अदा करना है! लेकिन आप तो दाल के संकट से पैदा देशभक्ति की लहरों को गिनिये। इस देशभक्ति के लिए दाल का त्याग तो किया ही जा सकता है। इस त्याग से वैश्विक भुखमरी सूचकांक में हम कुछ ऊपर और चढ़ जायेंगे, दुनिया में हमारा कुछ नाम और रोशन होगा।

लेकिन ऐसी देशभक्ति तो बड़ी खतरनाक है, जो हमारे देश की जनता को ही भूखा मार दें! जी नहीं, हमारी देशभक्ति वैसी ही है, जैसी ट्रंप की। वे अपने देश की सेवा कर रहे हैं, हम ट्रंप की। ट्रंप की सेवा में ही मेवा है। ट्रंप विश्व अधिनायक हैं और हम विश्व गुरू। अंग्रेजों के जमाने से हमारे परम पूज्यों ने यही सिखाया है कि जनता-वनता के चक्कर में समय बर्बाद मत करो, विश्व अधिनायक की वंदना करो और मशरूम-काजू के बने तर माल उड़ाओ। आप भी समझ जाइए कि हमारा राष्ट्रवाद कितने काम का है। न समझे, तो हमारी ईडी, सीबीआई सब समझा देगी। जेल के पानी में दाल के छिलके ढूंढना पड़े, तो फिर मत कहना बच्चू!

संजय पराते

(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।)