महात्मा गांधी -- जै राम जी!
आलेख : संजय पराते
संघी गिरोह को महात्मा गांधी के काम से ही नहीं, उनके नाम से भी कितनी नफरत है, यह मनरेगा को खत्म करने और उसकी जगह वीबी-जी राम जी विधेयक लाने के मोदी सरकार के कदम से पता चलता है। विधेयक के नाम से ही यह भी साफ हो जाता है कि उसकी पूरी राजनीति राम के नाम पर ही टिकी है।
इस योजना का नाम कुटिलतापूर्वक मनरेगा से बदलकर जी राम जी किया जाना भी, भाजपा- आरएसएस के विचारधारात्मक आग्रह को दिखाता है। संघी गिरोह ने राज करने के लिए राम को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रतीक बना लिया है। तीन दिन पहले मंत्रिमंडल ने महात्मा गांधी की जगह पूज्य बापू नाम रखने का फैसला किया था, लेकिन इसे बदल दिया गया, तो शायद इसलिए कि यह नाम उनकी ध्रुवीकरण की राजनीति के मकसद को पूरा नहीं कर रहा था।
श्रम कानूनों को खत्म करके और चार श्रम संहिताओं को थोपने के जरिए शहरी मजदूरों के अधिकारों पर हमले के बाद देर-सबेर ग्रामीण मजदूरों के अधिकारों पर भी हमला होना ही था। लेकिन यह हमला इतनी जल्दी होगा, यह किसी ने नहीं सोचा था। मोदी सरकार जिन 'श्रम सुधारों' की बात करती है, उसका चरित्र ही मजदूर विरोधी और कॉरपोरेटपरस्त हैं। यह पूंजीवाद के हित में होता है कि समाज में बेरोजगार मजदूरों की एक बड़ी सेना का अस्तित्व बना रहे, ताकि लागत में मजदूरी के हिस्से को न्यूनतम रखकर अधिकतम मुनाफा कमाया जा सके। इसलिए वह सार्वभौमिक रोजगार, जो कि मनरेगा की अवधारणा है, जैसी किसी भी योजना के खिलाफ होता है।
महात्मा गांधी नेशनल रूरल एंप्लायमेंट गारंटी एक्ट (मनरेगा) की जगह विकसित भारत -- गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन (ग्रामीण) विधेयक, 2025 (वीबी-जी राम जी विधेयक) लाने का मोदी सरकार का फैसला इन्हीं मजदूर विरोधी श्रम सुधारों को लागू करने की दिशा में एक बढ़ा हुआ कदम है। मोदी सरकार के इस कदम का कड़ा विरोध किया जाना चाहिए, क्योंकि यह विधेयक, मनरेगा के बुनियादी चरित्र को ही पूरी तरह से नकारता है और रोजगार की सार्वभौमिक गारंटी की जगह काम की केवल एक सीमित गारंटी देता है। यह विधेयक केंद्र सरकार को राज्यों की मांग के अनुसार फंड आबंटित करने की अपनी जिम्मेदारी से भी कानूनी तौर पर बरी कर देता है। रोजगार की सार्वभौमिक गारंटी और राज्यों की मांग के अनुसार फंड का 100 प्रतिशत आबंटन -- ये दोनों प्रावधान मनरेगा की जान हैं। नया विधेयक इन दोनों प्रावधानों के विपरीत है और इसलिए ये ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार का सृजन नहीं, रोजगार का विनाश ही करेंगे। (इस विधेयक का छुपा हुआ उद्देश्य यही है।) इस प्रकार, दुनिया की सबसे बड़ी रोजगार प्रदाय योजना, जिसने कोरोना के संकट काल में भी अपना औचित्य साबित किया था और कृषि विकास दर में वृद्धि सुनिश्चित की थी, को असल में भाड़ में झोंक दिया गया। इस विधेयक को अपने संसदीय बहुमत के बल पर सरकार ने पारित करा लिया है और हड़बड़ी इतनी थी कि इसके प्रावधानों को संसद की स्थायी समिति में भेजकर विचार-विमर्श करने की विपक्ष की सलाह को भी मानने से इंकार कर दिया।
मनरेगा में बिना किसी भेदभाव के हर ग्रामीण परिवार के लिए 100 दिनों के रोजगार की गारंटी दी गई है। नए विधेयक में इसे 100 दिन से बढ़ाकर 125 दिन करने का प्रावधान किया गया है। इस प्रावधान को सामने रखकर संसद में मोदी सरकार ने इसे "पुराने मनरेगा कानून का आधुनिक विकल्प" बताया है और इसे "विकसित भारत - 2047 के लक्ष्य के अनुरूप ग्रामीण विकास के लिए संरचनात्मक सुधार" करार दिया है। लेकिन यह दावा महज एक दिखावा है। सचाई यह है कि यह विधेयक, जॉब कार्डों को युक्तियुक्त बनाने के नाम पर, ग्रामीण परिवारों के बहुत बड़े हिस्सों को रोजगार मांगने के अधिकार से ही बाहर करने के दरवाजे खोलता है। हमारा अनुभव यह बताता है कि मनरेगा के सार्वभौमिक रोजगार के प्रावधान को कमजोर करने की पिछले 11 सालों में हर संभव कोशिश हुई है, जिसके तहत पर्याप्त बजट आबंटन न करना, इस कारण मजदूरों का समय पर मजदूरी का भुगतान न होना और महीनों इसका लंबित रहना, इस भुगतान को भी अनिवार्य रूप से आधार और बैंक खातों से जोड़ना, मजदूरों की उपस्थिति को डिजिटली दर्ज करने का निर्देश देना आदि शामिल हैं। इसी साल अक्टूबर-नवम्बर के बीच के एक माह में 27 लाख मजदूरों के नाम निष्क्रियता के आधार पर पंजीयन सूची से हटा दिए गया है। इसलिए इस नए विधेयक में 100 की जगह 125 दिनों का रोजगार देने का प्रावधान आश्वस्तिदायक नहीं है। पिछले 11 सालों का मोदी सरकार का रिकॉर्ड बताता है कि मनरेगा के 100 दिनों के रोजगार की गारंटी के बावजूद उसने औसतन हर साल 40-45 दिनों का ही रोजगार दिया है, जो यूपीए राज के औसत से कम है। नए विधेयक में तो इस गारंटी को भी कमजोर कर दिया गया है।
मनरेगा मांग-आधारित योजना है, लेकिन नए विधेयक में इससे राम-राम कर लिया गया है। 125 दिनों के रोजगार की उपलब्धता उन क्षेत्रों के लिए होगी, जिसका चयन केंद्र सरकार करेगी। इस चयन के मापदंड का उल्लेख विधेयक में नहीं मिलता और हम आसानी से अनुमान लगा सकते है कि यह चयन भाजपा की राजनैतिक जरूरतों को पूरा करने का माध्यम बनेगा। इसके साथ ही, ग्रामीण विकास योजनाओं को तैयार करने में ग्राम पंचायतों की स्वायत्तता भी खत्म हो जाएगी और उन्हें केंद्र की बनी-बनाई लीक पर काम करना होगा। इस प्रकार, राज्यों और केंद्र के बीच संविधान में उल्लेखित सहकारी संघवाद की अवधारणा को भी दफनाया जाएगा।
नए विधेयक में सरकार को यह अधिकार दिया जा रहा है कि कृषि के मौसम में, जब खेतों में सबसे ज्यादा काम होता है, इस रोजगार योजना को निलंबित किया जा सकता है। यह प्रावधान ग्रामीण परिवारों को उसकी सबसे ज्यादा जरूरत के समय काम से वंचित करके, उन्हें भूस्वामियों के रहमो-करम पर निर्भर बना देगा। विधेयक में 'कृषि-सघन मौसम' को परिभाषित नहीं किया गया है। हमारे देश में, जलवायु की विविधता है और इसके कारण विविध फसलों का उत्पादन होता है। रबी और खरीफ के मौसम के अलावा, ऐसे भी क्षेत्र हैं, जहां तीन फसलें होती हैं और इस कारण कृषि संबंधी गतिविधियां साल भर चलती रहती हैं। नए विधेयक के इस प्रावधान के तहत काम देने से इंकार करने के लिए इसे साल के ज़्यादातर हिस्से तक बढ़ाया जा सकता है। इससे रोजगार गारंटी का उद्देश्य ही खत्म हो जाता है। कार्य स्थल पर डिजिटल हाजिरी की अनिवार्यता का प्रावधान भी मजदूरों के लिए भारी कठिनाईयां पैदा करेगा और उन्हें रोजगार की हानि के साथ ही उनके अधिकारों से वंचित करने का माध्यम बनेगा।
नव उदारवादी नीतियों के तहत जल, जंगल, जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर कॉरपोरेट कब्जे को आसान बनाने के कारण छोटे किसानों के हाथों से बड़े पैमाने पर कृषि भूमि निकल गई है और किसानों से वे खेत मजदूरों की कतार में आकर खड़े हो गए हैं। इसके साथ ही कृषि क्षेत्र में पूंजीवादी विकास के कारण मशीनीकरण बढ़ा है। इसके कारण खेती के मौसम में भी खेत मजदूरों को खेती में मिलने वाले रोजगार के दिनों में भयंकर गिरावट आई है। ग्रामीण क्षेत्र की यह जानी-पहचानी हकीकत है कि कानूनी प्रावधानों के बावजूद आज भी खेती के कामों में महिलाओं को पुरुषों के बराबर मजदूरी नहीं दी जाती और उनके लिए यह मजदूरी 40 प्रतिशत तक कम है। मनरेगा ने ठीक ऐसे ही खेत मजदूरों को सहारा दिया था और कृषि-सघन मौसम में भी यदि उनके लिए उचित मजदूरी पर खेतों में काम उपलब्ध नहीं है, तो वैकल्पिक रोजगार का प्रबंध किया था। यह नया विधेयक सबसे ज्यादा ग्रामीण गरीबों से जिंदा रहने का यह वैकल्पिक सहारा भी छीन रहा है। बढ़ते मशीनीकरण और रोजगार के औसत दिनों में गिरावट के साथ मनरेगा की अनुपस्थिति उनकी मजदूरी में भी और विशेषकर, महिलाओं की मजदूरी में भयंकर गिरावट लाएगी और भूस्वामियों के शोषण को तेज करेगी।
मनरेगा पर हुए कई अध्ययन यह बताते हैं कि इससे ग्रामीण गरीबों की आय में 10 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और इस योजना के कारण गरीब ग्रामीणों में स्वाभिमान की भावना बढ़ी है, क्योंकि इसने उनकी सामूहिक सौदेबाजी की ताकत को बढ़ाया है। इसके कारण, चाहे मनरेगा में उसे रोजगार मिले या न मिले, मनरेगा से कम मजदूरी दरों पर अन्यत्र काम करने से उसने इंकार किया है। मनरेगा के कारण कृषि कार्यों के लिए मजदूर न मिलने का दुष्प्रचार इसी कारण से है कि अब गरीब ग्रामीण कम मजदूरी पर काम करने के लिए तैयार नहीं है। प्रभुत्वशाली सामंती वर्ग इसे अपने लिए गरीब ग्रामीणों की सीधी चुनौती मानता है। मोदी सरकार का जी राम जी विधेयक मनरेगा के कारण बनी ग्रामीण गरीबों की इसी ताकत को तोड़ने का काम करेगा।
ग्रामीण रोजगार के लिए फंडिंग के पैटर्न में प्रस्तावित बदलाव भी मजदूरों को रोजगार से वंचित करेगा। यह विधेयक, मजदूरी भुगतान के लिए केंद्र की जवाबदेही वर्तमान 100 फीसद से घटाकर, राज्यों के साथ 60:40 के आधार पर साझेदारी का प्रावधान करता है। यह बेरोजगारी भत्ता तथा मुआवजे के खर्च की जिम्मेदारी भी राज्यों पर डालता है। इसके साथ ही, ‘‘नार्मेटिव आबंटन’’ का प्रावधान किया जा रहा है, जिसका अर्थ है कि केंद्र द्वारा रोजगार कार्यों पर खर्च की राज्यवार अधिकतम सीमाएं तय की जाएंगी और इससे ज्यादा खर्च करने पर लागत का भार राज्यों को उठाना होगा।
अभी तक केंद्र सरकार इस योजना के लिए 60-70 हजार करोड़ रुपयों का ही बजट आबंटन करती आई है। इस योजना के विशेषज्ञों के अनुसार मनरेगा के लिए यह बजट आबंटन बहुत ही कम है और इस योजना से जुड़ी बहुत-सी परेशानियां और खामियां इसी कारण से है। अब कथित रूप से बढ़े हुए रोजगार दिवसों के साथ, यदि योजना के स्तर को बनाए रखना है, तो कम से कम 1 लाख करोड़ रुपयों का बजट आबंटन करना होगा और विधेयक के प्रावधानों के अनुसार, इसका 40 प्रतिशत याने लगभग 40000 करोड़ रुपयों का बोझ राज्य सरकारों को उठाना होगा। इससे पहले से ही आर्थिक रूप से संकटग्रस्त राज्य सरकारों पर अवहनीय वित्तीय बोझ पड़ेगा, जबकि राज्यों के वित्तीय संसाधनों के पूरे स्रोत पहले ही केंद्र सरकार ने हड़प लिए हैं। इससे ग्रामीण रोजगार कार्यों के सृजन से ही राज्य बचने की कोशिश करेंगे। यदि मोदी सरकार केंद्र के वर्तमान आबंटन को ही राज्यों के साथ साझा करेगी, तो योजना की वर्तमान गुणवत्ता को भी बनाए रखना मुश्किल होगा, क्योंकि सरकार का यह रुख इस कार्यक्रम के दायरे को और सीमित कर देगा और केंद्र की जवाबदेही को कम करेगा।
हमारे देश का किसान आंदोलन इस योजना में 250 दिनों का रोजगार देने और मजदूरी दर 750 रुपए करने की मांग को लेकर निरंतर आंदोलन कर रहा है। संसद की स्थायी समिति ने भी न्यूनतम मनरेगा मजदूरी 400 रुपए प्रतिदिन करने की सिफारिश की है। इसको नजरअंदाज करते हुए मोदी सरकार ने अपने ही अंदाज में इस योजना में न्यूनतम मजदूरी 240 रुपए प्रतिदिन का प्रावधान कर दिया है, जबकि भाजपा शासित राज्यों सहित कई राज्यों में मजदूरी की दर इससे बहुत ऊंची है। इसलिए यह न्यूनतम मजदूरी कई राज्यों को इस रोजगार योजना के लिए मजदूरी कम करने या फिर लंबे समय तक उन राज्यों में चल रही मजदूरी दरों पर ही स्थिर रहने को प्रेरित करेगा। वास्तविकता तो यह है कि मनरेगा के लिए दी जा रही मजदूरी शहरों में असंगठित क्षेत्र के अकुशल मजदूरों के लिए घोषित न्यूनतम मजदूरी से भी कम है। इसके बावजूद भाजपा सरकार ग्रामीण गरीबों की आजीविका की कीमत पर कॉरपोरेट हितों को बढ़ावा दे रही है। इसलिए इस विधेयक का नाम रोजगार और आजीविका मिशन (राम) से जोड़ना ही हास्यास्पद है, लेकिन आम जनता को भ्रमित करने और समाज के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के लिए यह नाम रखा जा रहा है। नामों को बदलना और काम की गुणवत्ता को गिराना -- इस सरकार की निशानी ही बन गया है।
मोदी सरकार ने इस विधेयक को संसद में रखते हुए मनरेगा के जिस आधुनिकीकरण की बात की है, उसके लिए मनरेगा को खत्म करने की जरूरत ही नहीं थी। राजनीतिक पार्टियों, ट्रेड यूनियनों तथा ग्रामीण गरीबों के संगठनों के साथ परामर्श करके और मनरेगा के नियमों में व्यापक सहमति के साथ बदलाव करके वह इसे आसानी से कर सकती थी। इससे मनरेगा और मजबूत होता और एक सार्वभौम तथा मांग-आधारित रोजगार गारंटी के रूप में इसका प्रभावी परिपालन सुनिश्चित किया जा सकता है। लेकिन सरकार का वास्तविक मकसद तो मनरेगा के इसी चरित्र को खत्म करना है। इसलिए समग्रता में यह नया विधेयक संविधान के अनुच्छेद 21 और 23 को भी निष्प्रभावी करता है, जो अपने नागरिकों को सम्मानपूर्वक आजीविका कमाने का अधिकार देता है।
महात्मा गांधी ने समाज के सबसे अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के आंसू पोंछने की बात की थी। तत्कालीन संप्रग सरकार पर वामपंथी पार्टियों के दबाव के बाद बना मनरेगा इसी का एक प्रयास था। इसने आदिवासियों, दलितों और आर्थिक रूप से कमजोर तबकों को आजीविका का सहारा दिया है। लेकिन कॉरपोरेटों का हित साधने के लिए मोदी सरकार ने महात्मा गांधी के इसी लक्ष्य को "जै राम जी" कह दिया है।
(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।)

