नए भारत का नया राष्ट्रवाद और विदेशी सामानों के बहिष्कार का आह्वान

आलेख : संजय पराते
एक समय था, जब महात्मा गांधी ने विदेशी सामानों के बहिष्कार का आह्वान किया था। गांधीजी के इस आह्वान पर हमारे देशवासियों ने बड़े पैमाने पर कपड़ों की होली जलाई थी। उस समय हम अंग्रेजों के गुलाम थे और वे यहां का कपास सस्ते में लूटकर इंग्लैंड ले जाते थे और वहां कपड़ा बनाकर यहां महंगा से महंगा बेचते थे। गांधीजी के इस आह्वान का ब्रिटिश अर्थव्यवस्था पर मारक प्रभाव पड़ा था।
अभी कुछ दिनों पहले ही हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विदेशी सामानों, खास तौर से चीनी सामानों, के बहिष्कार का आह्वान किया है। शायद उनके मन में इस देश का दूसरा गांधी बनने की इच्छा जाग गई हो। आज हम किसी के गुलाम नहीं है और आजादी का अमृतकाल चल रहा है। इस अमृतकाल में हर व्यक्ति अपनी इच्छा जगाने, उसे पूरा करने के लिए स्वतंत्र हैं। फिर मोदीजी कोई इस देश के साधारण नागरिक नहीं हैं। वे महामानव है, नॉन-बायोलॉजिकल है। उन्हें मां गंगा ने जन्म दिया है। वे असाधारण हैं। इन अदभुत गुणों के कारण ही वे प्रधानमंत्री बने हैं। गांधीजी को वे चाहकर भी राष्ट्रपिता की उपाधि से च्युत नहीं कर पाए हैं, यह अलग बात है। लेकिन जिस व्यक्ति ने इस देश को अमृतकाल का अमृत चखाया हो, क्या वह दूसरा राष्ट्रपिता बनने की इच्छा भी नहीं पाल सकता? सो, यदि उन्होंने विदेशी सामानों का बहिष्कार करने का आह्वान किया है, तो इसमें गलत क्या है?
हमारा देश 140 करोड़ से ज्यादा लोगों का देश है। आबादी बढ़ाने के मामले में हम चीन को भी पछाड़ चुके हैं और ऐसी पटकनी दी है कि बेचारा सपने में भी अब भारत से आगे बढ़ने की बात नहीं सोच सकता। आज कांग्रेसियों की कृपा से पूरा देश विदेशी सामानों से पटा पड़ा है। सबसे ज्यादा नेहरूजी जिम्मेदार है। बात समाजवाद की करते थे और देश को विदेशी सामानों से भरते थे। मरने के बाद भी भारत को इतनी बड़ी फजीहत में डाल गए कि स्वदेशी नाम की कोई चीज ही नहीं बची। पेन मांगो, तो विदेशी ; चश्मा चाहो, तो विदेशी ; कपड़े खरीदना चाहे, तो विदेशी ; टीवी देखना चाहो, तो विदेशी ; फ्रिज विदेशी, मोबाइल विदेशी, दवा-दारू सब विदेशी! टेक्नोलॉजी, चिप्स, टूल्स, हवाई जहाज -- ये सब तो विदेशी हैं ही।
इस देश का इतना विदेशीकरण हो गया है कि प्रधानमंत्री मोदी चाहकर भी अपना स्वदेशीकरण नहीं करवा पा रहे हैं। इस अमृतकाल में भी वे विदेशी सामान वापरने के लिए मजबूर है। उनका दिल कितना दुखता है भीतर ही भीतर, अंदर ही अंदर कितना रोते हैं वे, ये केवल वहीं जानते हैं, कोई और नहीं। चेहरे पर मुस्कान और अंदर आर्तनाद, ऐसी कलाबाजी केवल मोदी जी ही दिखा सकते हैं ; सो दिखा रहे हैं। देश के लिए सब कुछ करना पड़ता है, और फिर यह तो सर्वोच्च कुर्बानी है। वे जानते हैं, यदि देश ने उनके भीतर का आर्तनाद सुन लिया, तो तबाही मच जाएगी। पूरा देश एक स्वर से, एक साथ, दहाड़े मार-मारकर रोने लगेगा। सब काम-धाम छोड़कर रोने लगेगा। रोना, और केवल रोना ही, काम रह जाएगा। हिंदुत्व तो अब तक नहीं बन सका, लेकिन रोना राष्ट्रीय धर्म बन जाएगा। रोते-रोते ही काम करेगा, काम करते-करते रोएगा। खाते-खाते रोएगा और रोते-रोते खायेगा। गाते-गाते रोएगा और रोते-रोते गायेगा। हंसते-हंसते रोएगा, लेकिन रोते-रोते हंसेगा नहीं। हंसी उसके चेहरे से स्थाई रूप से गायब हो जाएगी। एक कर्म-प्रधान देश एक अश्रु-प्रधान देश में बदल जाएगा। आंसू की नदियां बहने लगेगी, इन नदियों में बाढ़ आ जायेगी, तबाही मच जाएगी देश में ही। फिर विपक्षियों को भी मौका मिलेगा। वे पूछेंगे, मोदी को तो पाकिस्तान में बाढ़ लाना चाहिए था, वहां तबाही मचानी चाहिए थी, लेकिन बाढ़ और तबाही ला रहे हैं यहां। ये विपक्षी फिर खुद को बैठाने के लिए मोदी को हटाने की मांग करेंगे। भोली-भाली जनता यदि उनके झांसे में आ गई, तो और ज्यादा तबाही होगी। मोदी का हटना, याने देश का विकास के रास्ते से हटना। देश का विकास के रास्ते से हटना, याने नेहरू युग की वापसी, और ज्यादा सर्वनाश। हमारे मोदी देश को सर्वनाश से बचाने के लिए ही अंदर से तो रो रहे हैं, बाहर से हंसा रहे हैं। मसखरेपन की हद तक जाकर इतना हंसा रहे हैं कि देशवासी रोना ही भूल जाएं। इतना हंसे, इतना हंसे कि विकास का रास्ता साफ-साफ दिखने लगे।
तो हम हंसते-हंसते देख रहे हैं, साफ-साफ देख रहे हैं। चुनाव है, तो राष्ट्रवाद होना ही चाहिए। राष्ट्रवाद होगा, तो ही चुनाव की वैतरणी पार होगी। संघी राष्ट्रवाद अब थोड़ा पुराना पड़ता जा रहा है। इसलिए घनघोर राष्ट्रवाद की जरूरत है, इतना घनघोर राष्ट्रवाद कि महात्मा गांधी को पछाड़ सके, मोदी को अमृतकाल का राष्ट्रपिता बना सके। इसके लिए फिर से विदेशी सामानों के बहिष्कार का आह्वान करने की जरूरत है।
गांधीजी बहिष्कार का आह्वान करते थे, जनता उस पर अमल करती थी और अंग्रेजी राज अपना डंडा चलाकर उनका दमन करती थी। बहिष्कार का आह्वान क्रियान्वयन का आह्वान था। मोदीजी का बहिष्कार का आह्वान क्रियान्वयन का नहीं, चुनाव में फतह पाने का आह्वान है। वे आह्वान करेंगे और उनकी सरकार अमेरिका से, फ्रांस से, इंग्लैंड से, चीन से मुक्त व्यापार समझौता करेगी, आयात शुल्क (टैरिफ) कम करेगी और बाजार को विदेशी सामान से पाटेगी। इसी से तो हमारे नागरिकों की देशभक्ति की परीक्षा होगी कि बाजार विदेशी सस्ते सामान से पटा है, और वे ढूंढ-ढूंढकर, दुकान-दुकान की खाक छानकर स्वदेशी सामान ला रहे हैं। नहीं मिला, तो अपने को कोसते हुए ही, विदेशी सामान खरीद रहा है। जो अपने को जितना ज्यादा कोसेगा, वह उतना बड़ा देशभक्त होगा। अब देशभक्ति शहादत नहीं, कोसना मांगती है। अब आप ही बताईए, इतनी सस्ती देशभक्ति दुनिया में और कहीं मिलती है? कोसना इतना सस्ता हो जाएगा कि लोग महंगाई को भूल जायेंगे। महंगाई को भूलना विकास के रास्ते को प्रशस्त करेगा। इस अहोभाग्य विकास के लिए लोग कोसते-कोसते ही खायेंगे-पियेंगे, ओढ़ेंगे-बिछाएंगे। हमारे देश का कोसना-प्रधान देश बनना ही हिंदुत्व की असली निशानी होगी।
मोदीजी देशभक्ताधिराज है, इसलिए उनकी देशभक्ति प्रमुखता से सबके सामने रखी जाएगी, ताकि लोग उससे प्रेरणा लें और नेहरू को कोस-कोसकर जीवन धन्य करें। ठीक उसी तरह, जिस तरह बच्चों की पुस्तकों से मुस्लिम राजाओं को हटाकर हिंदू राजाओं का महिमा गान किया जा रहा है, महाराणा प्रताप को हल्दी घाटी के युद्ध में जिताया जा रहा है। यदि कोई स्वर्ग है, तो स्वर्ग में बैठी महाराणा प्रताप की आत्मा कितनी पुलकित हो रही होगी, आप इसका अंदाजा लगा सकते हैं। जो युद्ध उनके सिपहसालार नहीं जितवा पाएं, सदियों बाद उस युद्ध को भगवाधारी देशभक्तों ने जीताकर विजय उनके गोद में रख दी। इस महान शौर्य के लिए महाराणा प्रताप मोदी जी के चरणों में नतमस्तक हों या नहीं, उनके वारिस जरूर गदगद है और मोदी जी के चरणों में नतमस्तक हैं।
मोदीजी की देशभक्ति को पढ़ाते-बताते हुए यह बात प्रमुखता से रखी जाएगी कि उन्हें अपनी देशभक्ति का जज्बा दिखाने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ रहे हैं। वे चाहते हैं कि स्वदेशी पेन से विकास की गाथा लिखें, लेकिन कमबख्त नेहरू की कृपा से जर्मनी के मोंटा ब्लैंक से काम चलाना पड़ रहा है। वे चाहते हैं कम-से-कम अमृतकाल को ही स्वदेशी चश्मे से देख लें, लेकिन यहां भी इटली के वर्सास को ही लगाना पड़ रहा है। वे चाहते है, स्वदेशी घड़ी को ही कमर में लटका लें, लेकिन यहां भी राहुल की ननिहाल से आई रोजर ड्यूबिस ने उनका हाथ थाम लिया। फिर उन्होंने अंधभक्तों के लिए स्वदेशी शरीर पर देशी बाना धारण करना चाहा, तो यहां भी इटली के जॉर्जियो अर्मानी का सूट उनके शरीर से चिपक गया। साफ है कि उनकी देशभक्ति को राजीव-राहुल-सोनिया मिट्टी में मिलाना चाहती है। इधर तो विदेशी बहू हमारे देश की छाती पर आकर बैठ गई। बैठ क्या गई, मूंग दल रही है। उधर, स्वदेशी माटीपुत्र का विदेशीकरण करने पर तुली है, लेकिन देशवासी इस गहरे षडयंत्र को भी समझ रहे हैं। फिर उन्होंने चाहा कि उनके कानों में कम-से-कम स्वदेशी फोन पर विदेश-प्रमुखों की आवाज गूंजे, लेकिन चिपक गया अमेरिका का आई-फोन! स्वदेशी जूते चाहे, तो फिर अमेरिका के केनेथ कोल ने पैर ही जकड़ लिए। चलना-फिरना, हिलना-डुलना मुश्किल! लेकिन हमारे मोदीजी इन मुश्किलों में भी नहीं डिगे। देश को चलाने के लिए उनका चलना जरूरी था। सो, चलने के लिए स्वदेशी कार चाही, तो अब जर्मन ने अपनी टांग अड़ा दी अपनी बीएमडब्ल्यू को आगे करके। थक-हारकर स्वदेशी हवाई जहाज पर सवार होना चाहा, तो फिर अमेरिका ने धमकी दे दी व्यापार युद्ध की, मुश्कें बांधकर बैठाल दिया प्रवासियों को तरह अपने ही बोइंग पर! अब बताईए, देशभक्ति की इतनी कठिन परीक्षा क्या किसी और शहीद ने दी होगी? अरे, कारगिल, पुलवामा और पहलगाम के शहीदों को भी छोड़ दो, तो क्या कभी नेहरू ने भी इतनी कुर्बानी दी थी, देशभक्ति के जज्बे के लिए अपनी इच्छाओं को इतना मारा था, जितनी कुर्बानी अपनी इच्छाओं को मारकर मोदीजी दे रहे हैं! जो तन-मन से लेकर चौतरफा विदेशों से घिरा हो, वही स्वदेशी की कीमत समझ सकता है, वही स्वदेशी की बात कर सकता है। विदेशी सामानों के बहिष्कार का आह्वान करने के लिए नीतियों की नहीं, हिम्मत की भी नहीं, अनुभव की जरूरत होती है। महात्मा गांधी ने बिना अनुभव के बहिष्कार का आह्वान करके देश को फंसा दिया था, हमारे मोदी इसी बहिष्कार का आह्वान करके देश-विदेश में विकास का डंका बजा रहे हैं।
विपक्षियों को, और उनमें भी वामपंथियों को, तर्क से बड़ा प्यार है। तर्क-तर्क, विज्ञान-विज्ञान चिल्लाते हैं। अब बताईए, महात्मा गांधी बड़े भये कि हमारे फकीर मोदी! बड़े हैं भाई, तो बड़ा ओहदा भी चाहेंगे ही। फिलहाल राष्ट्रपति का पद खाली नहीं है, उस जगह माननीया द्रोपदी मुर्मू विराजमान है। उन्हें हटाया भी नहीं जा सकता। लेकिन महात्मा गांधी को तो हटाया जा सकता है। इन दस सालों में सरकार ने उन्हें हटा भी दिया है चुपचाप। बस अब हमारे मोदी जी को उस पर विराजमान कर दो ढोल-ढमाके के साथ। किस्सा खत्म। न रहेंगे पिछड़े जमाने के गांधी, न रहेंगे पिछले राष्ट्रपिता। यह नया भारत है, न्यू नॉर्मल है, घर में घुसकर मारता है। पाकिस्तान को भी और गांधीजी के साबरमती आश्रम में भी।
हां, मोदीजी द्वारा विदेशी सामानों के बहिष्कार के आह्वान से याद आया कि 1947 में तो हमें नकली आजादी ही मिली थी। असली आजादी तो हिंदू हृदय सम्राट मोदी जी के 2014 में सत्ता में आने के बाद ही मिली है। किसी फिल्म कलाकारिन को इस खोज का श्रेय जाता है। तो जब 1947 में आजादी मिली ही नहीं, किसी भारत राष्ट्र का जन्म ही नहीं हुआ, तो राष्ट्रपिता कहां से आए? लेकिन हमारे मोदीजी इतने निष्ठुर भी नहीं है। लोक-लाज की भारतीय संस्कृति अच्छे से जानते-समझते हैं, तभी तो न चाहते हुए भी, मन में गाली देते हुए भी, विदेशों में गांधी प्रतिमा पर सिर झुका आते हैं। इससे विदेशियों को भी आभास नहीं होता कि ये वही मोदी है, जो अपने घर में ही गांधीजी को चुपचाप अलविदा कर चुके हैं। इससे मोदीजी की महानता का पता चलता है। वैसे, अपने मुंह से अपनी महानता का बखान करना मोदी जी को कभी भाया भी नहीं, वह भी विदेशों में। वरना बताईए, क्या विदेशों में फूलों की, मालाओं की क्या कमी है कि यदि वे घोषणा करें कि अब महात्मा गांधी नहीं, फकीर मोदी अमृतकाल के राष्ट्रपिता हैं, तो उन्हें करतल ध्वनियों के साथ फूल मालाओं से लाद नहीं दिया जाता! लेकिन मोदी इतने निर्मम भी नहीं कि गांधीजी को ही हटा दें। हां, यह जरूर है कि अब गांधीजी नकली आजादी के नकली राष्ट्रपिता हैं। असली आजादी के असली राष्ट्रपिता तो नरेंद्र मोदी ही है। वैसे ही, जैसे गुजरात में उनके नाम का स्टेडियम असली है। अब गुजरात का अहमदाबाद महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम के लिए नहीं, नरेंद्र मोदी स्टेडियम के लिए जाना जाता है। भले ही वे महात्मा गांधी को आधिकारिक रूप से राष्ट्रपिता की उपाधि से हटा न पाएं हो, सरदार वल्लभ भाई पटेल के नाम को हटाकर जीते जी किसी स्टेडियम को अपने नाम करवाने का कौशल दिखाने वाले वे देश के पहले प्रधानमंत्री तो बन ही गए हैं। सरदार पटेल संघी गिरोह के आज भी प्रिय पात्र हैं, लेकिन मोदी इतने सहृदय भी नहीं कि यह भूल जाएं कि ये वही पटेल थे, जो कथित आजादी के आंदोलन में गांधीजी के विश्वसनीय सहयोगी थे और संघ-गोलवरकर से कोसों दूर रहे। मोदी यह भी नहीं भूले कि उनका गांधी प्रेम इतना उछाल मार रहा था कि गांधीजी की गोडसे द्वारा हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगाने से भी नहीं चूके थे। जब पटेल ने ही संघी गिरोह के प्रति कोई ढिलाई नहीं बरती, तो मोदी ही पटेल के प्रति सहृदय क्यों बने? अच्छा ही हुआ, उन्होंने पटेल के नाम के स्टेडियम पर अपने नाम का कब्जा करके संघ प्रेम को सर्वोपरि रखा। आखिर, संघ प्रेम ही तो देश प्रेम है और सबको अपनी देशभक्ति जताने के लिए संघी स्कूल में शामिल होना ही पड़ेगा -- कुछ हिंदुत्व का पाठ पढ़ेंगे और कुछ मालेगांव जैसे आतंकवादी धमाके करेंगे। स्वतंत्र अभिव्यक्ति की हर बोली का जवाब वे गोली और गोलों से देंगे। जितने गोली-गोले मारेंगे, देशभक्ति भी उतनी ही फैलेगी।
मोदीजी नए युग के गांधीजी हैं, जिनकी रगों में व्यापार, सिंदूर और नफरत दौड़ता है। मोदीजी अमृतकाल के राष्ट्रपिता हैं। भले ही जनता उन्हें माने या न माने, विदेशी सामानों का बहिष्कार वे करवा कर ही मानेंगे। बरखुरदार, इस देश में रहना है, तो अपनी देशभक्ति साबित करो! वरना संघी गिरोह के ट्रोल्स खड़े हैं, खड़े-खड़े तुम सबको देश निकाला देने के लिए!!
(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।)