आरएसएस के सौ वर्ष और भारतीय संविधान

आलेख : जवरीमल्ल पारख
भारतीय तिथि के अनुसार 2 अक्टूबर 2025 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना को सौ वर्ष पूरे हो चुके हैं। पिछले 11 वर्षों से आरएसएस, जो एक सांप्रदायिक-फासीवादी संगठन है, देश पर शासन कर रहा है और भारत का प्रधानमंत्री एक ऐसा व्यक्ति है, जो लम्बे समय से आरएसएस का कार्यकर्त्ता है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि नरेन्द्र मोदी का शासनकाल आज़ादी के बाद का सबसे संकटपूर्ण और चुनौती भरा काल है। धर्म के नाम पर जिस तरह एक पूरे धार्मिक समुदाय को देश के दुश्मन की तरह पेश किया जा रहा है और उन्हें संविधान में मिले नागरिक अधिकारों से वंचित कर उन्हें दोयम दर्जे के नागरिक में तब्दील किया जा रहा है, वह इस राजसत्ता के फ़ासीवादी चरित्र का ही प्रमाण है। भारत का यह फ़ासीवाद अपने चरित्र में अति-दक्षिणपंथी भी है और ब्राह्मणवादी भी। मौजूदा राजसत्ता के विरुद्ध संघर्ष उन सब भारतीयों का कर्त्तव्य है, जो भारतीय संविधान में यक़ीन करते हैं और जो भारत की बहुविध धार्मिक, जातीय, भाषायी और सांस्कृतिक परंपरा को बचाये रखना चाहते हैं, क्योंकि असली भारत इसी परंपरा में निहित है, जिसे हिंदुत्वपरस्त ताक़तें ख़त्म करना चाहती हैं।
मौजूदा राजसत्ता के चरित्र को समझने के लिए आरएसएस की विचारधारा को समझना जरूरी है। वे अपनी राजनीतिक विचारधारा को हिंदुत्व नाम देते हैं। यह विचारधारा उन्होंने विनायक दामोदर सावरकर से ग्रहण की थी, जिन्होंने 1923 में ‘हिंदुत्व’ नामक पुस्तक लिखी थी। आरएसएस ने अपने इस राजनीतिक उद्देश्यों को कभी छुपाया नहीं। इस संगठन के दूसरे सरसंघचालक एम एस गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘वी ऑर अवर नेशनहुड’ में जो विचार पेश किये, उसके पीछे फासीवाद और नाज़ीवाद का प्रभाव भी था। इस पुस्तक में गोलवलकर यह प्रश्न उठाते हैं कि ‘अगर निर्विवाद रूप से हिंदुस्थान हिंदुओं की भूमि है और केवल हिंदुओं के फलने-फूलने के लिए ही है, तो उन सभी लोगों की नियति क्या होनी चाहिए, जो इस धरती पर रह रहे हैं, परंतु हिंदू धर्म, नस्ल और संस्कृति से संबंध नहीं रखते’ (गोलवलकर की हम या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा : एक आलोचनात्मक समीक्षा, शम्सुल इस्लाम, फारोस, नयी दिल्ली, पृ. 199)। स्वयं द्वारा उठाये इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वे लिखते हैं कि ‘वे सभी, जो इस विचार की परिधि से बाहर हैं, राष्ट्रीय जीवन में कोई स्थान नहीं रख सकते। वे राष्ट्र का अंग केवल तभी बन सकते हैं, जब अपने विभेदों को पूरी तरह समाप्त कर दें। राष्ट्र का धर्म, इसकी भाषा एवं संस्कृति अपना लें और खुद को पूरी तरह राष्ट्रीय नस्ल में समाहित कर दें। जब तक वे अपने नस्ली, धार्मिक तथा सांस्कृतिक अंतरों को बनाये रखते हैं, वे केवल विदेशी हो सकते हैं, जो राष्ट्र के प्रति मित्रवत हो सकते हैं या शत्रुवत’ (वही, 199)। गोलवलकर की इन बातों का अर्थ यही है कि भारत केवल हिंदुओं का राष्ट्र् है और बाकी सभी धार्मिक और नस्ली समुदाय विदेशी हैं। वे भारत में रह सकते हैं, लेकिन तभी जब वे ‘अपने विभेदों को पूरी तरह समाप्त कर दें’ और ‘खुद को पूरी तरह राष्ट्रीय नस्ल में समाहित कर दें’। अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि ‘अगर वे ऐसा नहीं करते हैं, तो उन्हें राष्ट्र के रहमो-करम पर, सभी संहिताओं और परंपराओं से बंधकर केवल एक बाहरी की तरह रहना होगा, जिनको किसी अधिकार या सुविधा की तो छोड़िए, किसी विशेष संरक्षण का भी हक़ नहीं होगा’ (वही, पृ. 201-202)। अगर वे अपने को राष्ट्रीय नस्ल में समाहित नहीं करते हैं तो ‘जब तक राष्ट्रीय नस्ल उन्हें अनुमति दें, वे यहां उसकी दया पर रहें और राष्ट्रीय नस्ल की इच्छा पर यह देश छोड़कर चले जाएं’। स्पष्ट है कि आरएसएस के अनुसार हिंदू राष्ट्र में गैर-हिंदुओं, विशेष रूप से मुसलमानों और ईसाइयों, को नागरिकता के वे अधिकार नहीं मिल सकते, जो हिंदुओं को स्वाभाविक रूप से प्राप्त होंगे। यानी उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनकर रहना होगा। यह संयोग नहीं है कि आरएसएस ने अपनी प्रेरणा फासीवाद और नाजीवाद से ग्रहण की है। इस पुस्तक में गोलवलकर ने अल्पसंख्यकों के प्रति जर्मनी और इटली ने जो रवैया अपनाया था, उसकी न केवल प्रशंसा की, बल्कि उसे अनुकरणीय भी माना।
भाजपा आरएसएस का हिस्सा है और उसी की विचारधारा इसका राजनीतिक आधार है। यह एक तथ्य है कि आरएसएस ने कभी भी आज़ादी की लड़ाई में भाग नहीं लिया और इनके वैचारिक गुरु सावरकर वह पहले व्यक्ति थे, जो धर्म को राष्ट्र का आधार मानते थे और द्विराष्ट्र की धारणा को मुस्लिम लीग से पहले पेश किया था। जब संविधान बन रहा था, तब आरएसएस उसका लगातार विरोध करता रहा। संविधान की शपथ लेने और संसद की चौखट पर सिर टेकने से यह साबित नहीं होता कि उन्होंने अपने विचार बदल लिए हैं। आज की सचाई भी यही है कि आरएसएस न संविधान में यकीन करती है और न ही संघात्मक गणराज्य में। गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘विचार नवनीत’ (बंच ऑफ थॉट्स) में संविधान पर अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा था, ‘हमारा संविधान पश्चिमी देशों के विभिन्न संविधानों में से लिए गए विभिन्न अनुच्छेदों का एक भारी-भरकम तथा बेमेल अंशों का संग्रह मात्र है। उसमें ऐसा कुछ भी नहीं, जिसको कि हम अपना कह सकें। उसके निर्देशक सिद्धांतों में क्या एक भी शब्द इस संदर्भ में दिया है कि हमारा राष्ट्रीय-जीवनोद्देश्य तथा हमारे जीवन का मूल स्वर क्या है? नहीं’ (विचार नवनीत, ज्ञानगंगा, जयपुर, 1997, पृ. 237)। संघ और भाजपा अकेले ऐसे संगठन हैं, जो संघात्मक गणराज्य में यकीन नहीं करते। गोलवलकर ने लिखा था, ‘आज की संघात्मक (फेडेरल) राज्य पद्धति पृथकता की भावनाओं का निर्माण और पोषण करने वाली, एक राष्ट्र भाव के सत्य को एक प्रकार से अमान्य करने वाली एवं विच्छेद करने वाली है। इसको जड़ से ही हटा कर तदनुसार संविधान शुद्ध कर एकात्म शासन प्रस्थापित हो’ (समग्र दर्शन, खंड-3, भारतीय विचार साधना, नागपुर, पृ. 128)।
भारतीय संविधान के मूल में यह मान्यता थी कि भारत विभिन्न राष्ट्रीयताओं का संघ है, क्योंकि भारत विभिन्न भाषाओं, क्षेत्रीय भिन्नताओं और सांस्कृतिक बहुलताओं वाला देश हैं। इन भिन्नताओं को स्वीकार करके ही उनके बीच एकता की स्थापना की जा सकती है। इसीलिए भारत की संकल्पना संविधान निर्माताओं ने लोकतांत्रिक संघात्मक गणराज्य के रूप में की थी। भारतीय संविधान की प्रस्तावना को पढने से यह स्पष्ट हो जाता है। यह प्रस्तावना कहती है, ‘हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष , लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय , विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढाने के लिए दृढसंकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं’। इसके विपरीत आरएसएस भारत को हिंदुओं का ही देश मानता है और अन्य धर्मावलंबियों को या तो हिंदुओं में ही समाहित करता है या उन्हें विदेशी मानता है, इसलिए वह एक राष्ट्र्, एक धर्म, एक नस्ल, एक जाति की बात करता है। स्वयं आरएसएस का उद्देश्य, ‘एक ध्वज के नीचे, एक नेता के मार्गदर्शन में, एक ही विचार से प्रेरित होकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुत्व की प्रखर ज्योति इस विशाल भूमि के कोने-कोने में प्रज्ज्वलित कर रहा है’ (समग्र दर्शन, खंड-1, पृ. 11)।नरेंद्र मोदी के शासन काल में जो बदलाव हो रहे हैं, उनको हम तभी समझ सकते हैं, जब आरएसएस की उपर्युक्त विचारधारा को ठीक से समझें।
भारतीय जनता पार्टी (जिसका पहले नाम भारतीय जनसंघ था) जब-जब सत्ता में आयी है, चाहे राज्यों में हो या केंद्र में, उसने उस दिशा में लगातार कदम उठाये, जो आरएसएस की सांप्रदायिक-फासीवादी विचारधारा के पक्ष में जाते हैं। लेकिन 2014 में जब से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की सरकार बनी है, हिंदू राष्ट्र बनाने के अपने लक्ष्य की ओर तेजी से आगे बढ़ी है। लेकिन इस काम में सफलता तभी हासिल हो सकती है, जब व्यापक हिंदू जनता का समर्थन उसे मिले। इस दिशा में तो आरएसएस और उससे संबद्ध सभी संगठन ज़मीनी स्तर पर हमेशा काम करते रहे हैं, लेकिन सत्ता में आने पर वे पूरे सरकारी तंत्र का भी निर्लज्जतापूर्वक अपने लक्ष्यों के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। इनमें पाठ्यक्रमों में फेरबदल, हिंदुत्वपरस्त सांप्रदायिक इतिहास लेखन और अपनी विचारधारा के प्रचार के लिए सिनेमा सहित मीडिया का इस्तेमाल शामिल हैं। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण है कानूनों में बदलाव। भारतीय जनता पार्टी अपने घोषणापत्रों में तीन लक्ष्यों को बार-बार दोहराती रही है। पहला : कश्मीर से धारा 370 हटाना, दूसरा : समान नागरिक संहिता लागू करना और तीसरा : अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण। नरेंद्र मोदी के शासन काल में कश्मीर से धारा-370 हटायी जा चुकी है, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण किया जा चुका है और जनवरी, 2024 में मंदिर के द्वार भी खुल चुके हैं। और समान नागरिक संहिता भी कुछ भाजपा शासित राज्यों में लागू की जा चुकी है।
जिस दौर में सांप्रदायिक राजनीति का तेजी से फैलाव और उभार हो रहा था, उसी दौर में भारतीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था भी पूरी तरह दक्षिणपंथी करवट ले रही थी। कह सकते हैं कि इस दौर में पूंजीवादी व्यवस्थाओं का विस्तार हुआ है, उनमें पारस्परिक आदान-प्रदान बढ़ा है और जो और जिस तरह की भी वैकल्पिक व्यवस्थाएं थीं, वे या तो ढह गयी हैं, या कमजोर हुई हैं। इस दौर की तीन पहचानें हैं : निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण। इसी दौर की उपज आतंकवाद भी है। आतंकवाद को विश्वव्यापी और खतरनाक बनाने में यदि अमरीका की नवसाम्राज्यवादी नीतियां जिम्मेदार हैं, तो उस प्रौद्योगिकी का भी हाथ है, जो नवीनतम हथियारों और संचार प्रौद्योगिकी के रूप में सामने आये हैं। भारत में आतंकवाद कई रूपों में सक्रिय है। लेकिन मीडिया आमतौर पर कथित रूप से जिहादी या इस्लामी आतंकवाद को ही अपने हमले का निशाना बनाता रहा है। आतंकवाद यदि एक ओर देशभक्ति की भावनाओं को भुनाने का जरिया बनता है, तो दूसरी ओर, यह मीडिया को एक बहुत ही उत्तेजनापूर्ण और रोमांचकारी विषयवस्तु भी प्रदान करता है। मीडिया दर्शकों के इस राजनीतिक दुराग्रह को मजबूत करता है कि ‘सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं’ जबकि हिंदुत्वपरस्त आतंकवाद भी अपने खुंखार रूप में सामने आ चुका है। यहां यह नहीं भुला जाना चाहिए कि गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार और बाबरी मस्जिद का विध्वंस, उड़ीसा, कर्नाटक आदि में ईसाइयों पर हमले भी आतंकवाद ही है। नरेंद्र मोदी के शासनकाल में मुसलमानों की भीड़ द्वारा हत्या, उनके घरों पर बुलडोजर चलवाना और उन्हें निरपराध होते हुए भी गिरफ्तार करके लंबे समय के लिए जेल भेज देना भी आतंकवाद ही है। मणिपुर में पिछले तीन साल से कुकी आदिवासी समूह और मैतेई लोगों के बीच गृह युद्ध की-सी स्थिति बनी हुई है।
2014 में सत्ता में आने के बाद से मोदी सरकार लगातार ऐसे कदम उठाती रही है, जिसका मकसद हिंदुओं को एकजुट करना है, ताकि वे एकजुट होकर भाजपा को वोट दे। उनमें और मुसलमानों में इस हद तक विभाजन पैदा करना है, जिससे न केवल हिंदू एकजुट हों, बल्कि धार्मिक अल्पसंख्यकों विशेष रूप से मुसलमानों को मुख्यधारा से अलग-थलग भी किया जा सके। चाहे मसला, गो-मांस या गो-तस्करी का हो या लव ज़िहाद का या जय श्रीराम बोलने का, मकसद यही है कि मुसलमानों में ऐसा भय पैदा किया जाए, जिससे कि वे अपने को मुख्यधारा से अलग-थलग कर लें। उनका मकसद यह भी है कि वे हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति इतनी नफरत और घृणा भर दे (और भय भी) कि वे उनका अपने आसपास होना भी बर्दाश्त न कर सके और मौका लगते ही उनके प्रति हिंसक हो जाए। हिंदू यह मानने लगे कि मुसलमान उनके लिए वैसे ही बोझ हैं, जैसे हिटलर की जर्मनी में यहूदी। उनकी समस्त परेशानियों का कारण मुसलमान ही है। इसलिए मुसलमानों के विरुद्ध किया जाने वाला कोई अपराध, अपराध की श्रेणी में नहीं आता। प्रधानमंत्री ही नहीं, भाजपा और संघ का कोई नेता ऐसे हिंसक अपराधों की न तो कभी निंदा करता है और न ही इन अपराधों की रोकथाम के लिए भाजपा सरकार द्वारा कोई कदम उठाया गया है। उनकी कोशिश यह भी है कि एक समुदाय के रूप में मुसलमानों की देशभक्ति को हिंदुओं की नज़रों में संदिग्ध बना दिया जाए। उनकी मौजूदगी को औरतों और बच्चों के लिए खतरा बताया जाये।
इन दस सालों में मनुवादी, दलितविरोधी, पितृसत्तावादी, मुस्लिम-विरोधी, हिंदुत्वपरस्त ताक़तों को अच्छी तरह से एहसास हो चुका है कि यह राजसत्ता उनकी है। यह अकारण नहीं है कि इन दस सालों में लगातार मुसलमानों पर ही नहीं, महिलाओं, दलितों, आदिवासियों और अन्य कमज़ोर वर्गों पर हमले बढ़े हैं। शिक्षा संस्थाओं और नौकरियों में आरक्षण लगातार कम किया जा रहा है और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के बेचने की मुहिम का नतीजा है कि इन सभी कमज़ोर वर्गों के रोज़गार के रास्ते लगातार बंद होते जा रहे हैं।
लेकिन इन सबसे अधिक खतरनाक है, कानूनों में ऐसे बदलाव, जिसके कारण जहां एक ओर मुसलमानों को संविधान में मिली समानता और स्वतंत्रता में कटौती की जा रही है, तो दूसरी ओर आम भारतीय नागरिकों को जो अधिकार प्राप्त हैं, उनमें भी कटौती की जा रही है। इसके साथ ही पिछले दस सालों में संवैधानिक संस्थाओं को लगातार कमजोर किया जा रहा है।
5 अगस्त 2019 को भारतीय जनता पार्टी ने संवैधानिक प्रक्रियाओं को धता बताते हुए जम्मू और कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा देने वाले आर्टिकल 370 के उन प्रावधानों को हटा दिया है, जो भारत के साथ उसके विलय के समय संविधान सभा द्वारा स्वीकृत किये गये थे। आर्टिकल 370 के इन प्रावधानों को हटाये जाने से पहले भी और आज भी, जम्मू और कश्मीर राज्य भारत का अभिन्न अंग था और है। लेकिन अब वह राज्य नहीं रह गया है, बल्कि इसे दो केंद्रशासित प्रदेशों में बदल दिया गया है। जम्मू और कश्मीर ऐसा केंद्रशासित प्रदेश होगा, जिसमें एक विधानसभा तो होगी, लेकिन जिसे वे अधिकार प्राप्त नहीं होंगे, जो पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त राज्यों को प्राप्त होते हैं। जम्मू और कश्मीर के उपराज्यपाल की सलाह और स्वीकृति के बिना वहां का मंत्रिमंडल कोई काम नहीं कर सकेगा। लद्दाख भी केंद्र शासित प्रदेश होगा, लेकिन उसकी कोई विधान सभा नहीं होगी और वह सीधे केंद्र द्वारा ही शासित होगा। इन छः सालों में लद्दाख की ज़मीनों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों को पूंजीपतियों को लुटाया जा रहा है, वह सीमावर्ती राज्य होने के कारण सुरक्षा की दृष्टि से ही खतरा नहीं पैदा कर दिया है, बल्कि वहां के पर्यावरण को भी गहरा नुकसान पहुँचाने की संभावना पैदा कर दी है। लद्दाख से राज्य के अधिकार छीने जाने का ही नतीजा है कि वहां के नागरिकों में गहरा असंतोष पैदा हो गया है। लद्दाख के सर्वाधिक सम्मानित नागरिक सोनम वांगचुक के नेतृत्त्व में वहां की जनता अपने अधिकारों के लिए जो संघर्ष कर रही है, उसे राज्य की हिंसा द्वारा कुचला जा रहा है और सोनम वांगचुक को जेल में डाल दिया गया है।
इस तरह जम्मू और कश्मीर राज्य को जो स्वायत्तता प्राप्त थी, उसने सिर्फ वही नहीं खो दी है, बल्कि उसे वह स्वायत्तता भी नहीं मिली है, जो अन्य पूर्ण राज्यों को प्राप्त है। केंद्र को आज की तरह उन्हें वहां सेना, अर्धसैनिक बल तैनात करने का ही अधिकार नहीं होगा, बल्कि वहां की पुलिस भी पूरी तरह केंद्र के नियंत्रण में होगी। निश्चय ही यह विलय के समय हुए समझौते और संविधान सभा द्वारा किये गये प्रावधानों का उल्लंघन है। ये प्रावधान क्या है, जिसे खत्म करना इतना जरूरी समझा गया और इन्हें समाप्त करने के बाद ही यह माना जा रहा है कि अब जम्मू और कश्मीर भारत का वास्तव में अंग बना है।
कश्मीरी मुसलमानों को आतंकवादी बताने के लिए केंद्र की मोदी सरकार दो और हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। एक, कश्मीर के मुसलमान जो उनकी नज़र में अलगाववादी हैं और पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद के समर्थक हैं और इसी प्रचार का परिणाम है कश्मीर फाइल्स जैसी फ़िल्म। दूसरे, वे सभी मुसलमान, जिनके पास भारत की नागरिकता का कोई प्रमाण नहीं हैं, उन्हें घुसपैठिए और देश के लिए खतरनाक बताकर बाहर निकालना और जब तक वे भारत से बाहर नहीं जाते, तब तक के लिए उन्हें नागरिक अधिकारों से वंचित करके नज़रबंदी शिविरों में रखना। इसी के लिए नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लाया गया है और जिसका अगला कदम नागरिकों का राष्ट्रीय पंजीकरण (एनआरसी) होगा। भारतीय संविधान सभी नागरिकों को चाहे उनका धर्म, जाति, लिंग, भाषा आदि कुछ भी क्यों न हो, उन्हें समान नागरिकता का अधिकार देता है। लेकिन अब इसमें से मुसलमानों को अलग कर दिया गया है। अगर कोई पड़ोसी राज्य का मुसलमान भारत की नागरिकता लेना चाहता है, तो उसे सीएए के तहत नागरिकता नहीं मिलेगी। जहां तक नागरिकता के रजिस्टर का सवाल है, इससे उन सभी लोगों की नागरिकता खतरे में पड़ जायेगी, जिनके पास नागरिकता का प्रमाण नहीं होगा। लेकिन मुसलमानों को छोड़कर शेष समुदायों को शरणार्थी मानकर नागरिकता दे दी जायेगी।
नरेंद्र मोदी सरकार के निशाने पर भारत की लोकतांत्रिक और संघात्मक संरचना है। अभी हाल ही में संसद में जो बिल पेश किया गया है जिसके आधार पर किसी भी चुने हुए प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और किसी भी मंत्री को एक माह तक जेल में रहने के आधार पर अपने पद से बर्खास्त किया जा सकता है। यह एक खतरनाक विधेयक है, क्योंकि इन 11 सालों में किस तरह विरोधी दल के नेताओं पर झूठे मामले चलाकर जेल में डाला गया है, इसे पूरा देश देख चुका है। इसी तरह सूचना के अधिकार कानून को कमजोर बनाया जा चुका है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी कई तरह के प्रतिबंध लगाये जा रहे हैं। इसी तरह कई आपराधिक और दंडात्मक कानून बदले गये हैं। उनके केवल हिंदी नाम नहीं रखे गये हैं, बल्कि उन्हें पहले से ज्यादा कठोर बना दिया गया है, दावा भले ही इससे उलट किया गया हो। मसलन, धारा 124, जो देशद्रोह से संबंधित कानून है और जो अंगरेजों के समय से चला आ रहा था और जिसे हटाने की मांग लंबे समय से की जा रही थी, उसे हटा दिया गया है। संसद में इस कानून को समाप्त करने की घोषणा करते हुए गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि आजाद भारत में इस तरह के कानून नहीं होने चाहिए और सबको अपनी बात कहने की आज़ादी होनी चाहिए। लेकिन इस कानून की जगह अब जो नया कानून लाया जा रहा है, उसमें वे सभी प्रावधान हैं, जो धारा 124 में थे।
यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि पिछले दस साल में इसी सरकार ने धारा 124 का काफी इस्तेमाल किया है। इसी तरह यूएपीए जैसा कानून का भी इस सरकार ने सबसे अधिक इस्तेमाल किया है, जिसमें बिना कारण बताये किसी को भी गिरफ्तार किया जा सकता है। भीमा कोरेगांव और 2020 के दिल्ली दंगों के मामले में पांच साल से ज्यादा समय से बहुत से बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता बिना मुकदमा चलाये जेलों में बंद है। कानूनों में जो बदलाव किये जा रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि सरकार के निशाने पर धार्मिक अल्पसंख्यक, विशेष रूप से मुसलमान हैं, जिन्हें लगातार निशाना बनाया जा रहा है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा आदि भाजपा शासित राज्यों में तुरत-फुरत न्याय के नाम पर मुसलमानों के घर, दुकानें और व्यवसायिक भवनों को बुलडोजर के द्वारा धराशायी किया गया है। अभी कुछ ही दिनों पहले हरियाणा में नूंह में हुए दंगे के बाद बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों के घर, दुकानें और कई भवन बुलडोजर से धराशायी कर दिये गये। न्याय करने का यह गैरकानूनी तरीका है, लेकिन इसे रोकने वाला कोई नहीं है। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों ने यह टिप्पणी करते हुए इस पर रोक लगायी थी कि क्या यह जातीय नरसंहार का मामला है? इस मामले में इन दो न्यायाधीशों द्वारा आगे सुनवाई हो, उससे पहले ही उन दोनों न्यायाधीशों से केस हटा दिया गया।
दरअसल, हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का कोई अंग ऐसा नहीं है, जो इस सांप्रदायिक-फासीवादी सरकार के निशाने से बाहर है। संसद का हाल हम देख रहे हैं, जिसकी बहसों में शामिल होना प्रधानमंत्री अपना अपमान समझते हैं। बहुत से जरूरी विधेयक बिना बहस-मुबाहिसे के पास हो जाते हैं। अगर विपक्ष का कोई सांसद ज्यादा विरोध करता है, तो उसे निलंबित कर दिया जाता है। इससे कुछ भिन्न स्थिति न्यायपालिका की नहीं है। कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकतर मामलों में न्यायालय के फैसले न्याय से नहीं, बल्कि सत्ता की राजनीतिक जरूरतों से तय होते हैं। राहुल गांधी को मानहानि के मामले में जिस तरह से अधिकतम सजा दी गयी, वह इसका ठोस प्रमाण है। अरुण गोयल को चुनाव आयोग का सदस्य नियुक्त करने का जो तरीका अपनाया गया, वह इतना अधिक पक्षपातपूर्ण था कि पांच जजों की बैंच ने यह व्यवस्था की कि जब तक संसद कानून नहीं बनाता, तब तक चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति जिन तीन सदस्यों द्वारा होगी उनमें प्रधानमंत्री, विपक्षी दल का नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश होंगे। लेकिन अब सरकार ने ऐसा कानून बना दिया है, जिसमें चुनाव आयुक्त की नियुक्ति जिन तीन सदस्यों द्वारा होगी, उनमें सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश नहीं होंगे, बल्कि उनकी जगह प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त एक केबिनेट मंत्री होगा। स्प्ष्ट है कि केबिनेट मंत्री कभी भी अपने प्रधानमंत्री के विरुद्ध नहीं जायेगा, इसलिए भविष्य में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति दरअसल प्रधानमंत्री द्वारा होगी। विपक्ष के नेता पक्ष में रहे या विपक्ष में उससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ेगा। चुनाव आयोग का जो रवैया अब देखने को मिल रहा है, उससे यह प्रतीत होता है कि चुनाव आयोग एक स्वतंत्र संवैधानिक निकाय नहीं है बल्कि भाजपा का ही एक संगठन है।
ये सब बदलाव जो हो रहे हैं, वह लोकतंत्र को कमजोर करने वाले हैं और संविधान की मूल आत्मा का हनन है। इसका एक मकसद हिंदू राष्ट्र की दिशा में कदम बढ़ाते जाना है, तो दूसरी तरफ भारत के लोकतांत्रिक और संघात्मक ढांचे की बुनियाद को कमजोर करना है। ये दोनों मकसद दरअसल एक ही हैं।
मुस्लिम समुदाय के अधिकारों के छीने जाने से हो सकता है कि फौरी तौर पर हिंदू आबादी का बड़ा हिस्सा इसे राष्ट्रवाद की विजय के रूप में देखे और इस बात से प्रसन्न हो कि पाकिस्तान की तरह हम भी एक धार्मिक राष्ट्र बन गये हैं, लेकिन इन सबकी आड़ में जो शोषणकारी पूंजीवादी राजसत्ता और साम्राज्यवाद का दबाव जनता के लिए मुश्किलें पैदा कर रही है और आगे ये मुश्किलें दिन ब दिन बढ़ती जाएंगी, उसे वे कैसे और कब तक भूल पायेंगे। देश पहले से ही महंगाई, बेरोजगारी और मंदी की मार से त्रस्त है और इनके पास इन समस्याओं से निपटने के जो तरीके हैं, उनसे निश्चय ही संकट और गहराता जाएगा, तब हिंदू राष्ट्र के प्रति गर्व भावना और मुसलमानों के प्रति नफ़रत उनकी कोई मदद नहीं करेगी। यही नहीं, संघ की विचारधारा केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों के ही विरुद्ध नहीं है, वह दरअसल ब्राह्मणवादी विचारधारा भी है और उसका एक बड़ा हिस्सा जितनी नफरत मुसलमानों से करता है, उससे कम दलितों से नहीं करता। वे यह भी चाहते हैं कि दलितों को संविधान ने जो बराबरी का अधिकार दिया है, आरक्षण की सुविधा दी है, वह भी उनसे छीन ली जाए। सच्चाई यह है कि संघ का पूरा वैचारिक परिप्रेक्ष्य लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समानता और संघीय संरचना के विरोध में निर्मित हुआ है। उनके हमले का मूल निशाना यह संविधान ही है, जिसे वे खत्म न कर सकें, तो पूरी तरह से कमजोर और निष्प्रभावी जरूर बना देना चाहते हैं। 2014 से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार यही काम कर रही है। संविधान हमारे लोकतंत्र का ही नहीं, इस देश के प्रत्येक नागरिक की आज़ादी का भी रक्षक है और उसी के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। आरएसएस के रहते यह खतरा कम नहीं होगा, बल्कि बढ़ता जाएगा। इस बात को समझने में जितनी देरी होगी, उतना ही देश के लोकतंत्र को ही नहीं, वजूद के लिए भी खतरनाक साबित हो सकता है।
(लेखक इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्राध्यापक हैं। जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं।)