डर का गणतंत्र : क्या अस्जाद बाबू को आज के भारत में इन्साफ मिल सकेगा?

आलेख : सुभाष गाताडे
“Our dead are never dead to us until we have forgotten them”. ("हमारे मृतक तब तक मृत नहीं है, जब तक कि हम उन्हें भूल नहीं जाते।")
--- जॉर्ज इलियट (अंग्रेजी उपन्यासकार और कवि, 1819-1880)
फिरदौस आलम उर्फ अस्जाद बाबू – उम्र 24 साल – अब इस दुनिया में नहीं है।
इस नौजवान की मौत की जो खबरें मीडिया के एक हिस्से में आयी हैं, वह बेहद परेशान करने वाली हैं।¹
बिहार के सूबा किशनगंज का निवासी अस्जाद की शादी महज 7 माह पहले हुई थी और वह पानीपत, हरियाणा में दर्जी का काम करता था। उस दुखद शाम वह अपने दोस्तों के साथ, जिसमें उसका भाई असद रज़ा भी था, एक खाली जगह पर बैठा था, जब अभियुक्त वहां आया और उसने उसकी मखमल की तंग टोपी, जिसे कई मुस्लिम पहनते हैं, को लेकर उसका मज़ाक उड़ाना शुरू किया और टोपी को सिर से उछाल दिया। न अस्जाद और न ही उसके दोस्तों में से किसी की अभियुक्त नरेन्द्र उर्फ ‘‘सुसू लाला’’ से कोई दुश्मनी थी और जब उसके इस कदम का विरोध किया गया, तो उसने चाकू से हमला कर उसे बुरी तरह घायल कर दिया।
आप इस ख़बर को किसी भी कोण से पढ़िए, आप यही पाएंगे कि वह कोई सामान्य मौत नहीं है। समुदाय विशेष के खिलाफ जिस किस्म की नफरती हवाएं इस मुल्क में चल रही हैं, उसी का यह एक और परिणाम है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह एक नफरती अपराध है।
नफरती अपराध के बारे में कहा जाता है कि यह किसी शख्स का रंग, उसकी नस्लीयता, उसके कपड़े, उसकी आस्था या उसका धार्मिक जुड़ाव, उसकी विकलांगता, यहां तक कि उसके यौनिक झुकाव के प्रति पूर्वाग्रह या दुश्मनी, भेदभाव या हमले का कारण बनती है। यह अलग बात है कि स्थानीय पुलिस या कानून के रखवाले इस अपराध को क्या उसी अंदाज़ में देखते हैं या उसे अन्य सामान्य अपराधों में शुमार करते हैं, इसके बारे में दावे के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता।² जाहिर है कि नफरती अपराध में शुमार किया जाए, तो न केवल अभियुक्त पर सख्त आरोप लगेंगे और सज़ा भी सख्त मिल सकती है।
वैसे आज के भारत में जिसे न्यू इंडिया अर्थात नया भारत कहने की जिद हुक्मरान पाले हुए हैं, यह एक बेहद घिसी-पिटी बात लग सकती है कि अस्जाद बाबू के साथ जो हादसा हुआ, वैसी घटनाएं अब सामान्य हो चली हैं।
इस समाचार के लिखे जाने के महज एक सप्ताह पहले की अलीगढ़ से आयी इस ख़बर पर आप ने गौर किया होगा, जहां भैंसे का मीट बाकायदा लाइसेन्स के आधार पर कहीं ले जा रहे चार लोगों पर – जो मुस्लिम समुदाय से सम्बंधित थे – गौआतंकियों ने हमला किया और उन्हें बुरी तरह घायल किया।³ यह ख़बर भी चल रही थी कि हमलावर युवा – जो सभी हिन्दू थे – गोरक्षा के नाम पर अवैध वसूली का रैकेट चला रहे थे और उन्होंने भैंसे का मीट ले जा रहे उन चार लोगों को पहले धमकाया था और जब वह नहीं माने, तब उन पर हमला किया था।
पुलिस किस तरह अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो पाती, इसकी मिसाल यह दी जा सकती है कि ले जाए जा रहे मीट के गोमांस न होने की पुष्टि होने के बावजूद पुलिस ने इन चारों युवाओं से मुकदमे हटाए नहीं हैं।
वेसे गोरक्षा के नाम पर किस तरह हिन्दू युवाओं के एक हिस्से को अपराधी बनाया जा रहा है, उसके बारे में कितनी जागरूकता उन आम घरों में है, क्या वह इस सियासत को समझ पा रहे हैं, यह पड़ताल आवश्यक है। क्या वह इस बात को देख पा रहे हैं कि गोरक्षा के नाम पर सत्ता के शीर्ष पर पहुंच रहे नेतागण अपनी सन्तानों को विदेशों के अच्छे-अच्छे संस्थानों में पढ़ा रहे हैं और आम परिवारों के बच्चों को एक तरह से अपराध की दुनिया में धकेल रहे हैं।
महज पिछले ही माह आप सभी ने आगरा से आयी उस नफरती हत्या की ख़बर पढ़ी होगी, जहां एक बिरयानी विक्रेता की किसी मनोज ने गोली मार कर हत्या कर दी और वीडियो में बाद में दावा किया था कि उसने ‘‘पहलगाम का बदला ले लिया है।’’⁴
अगर भारत के जनतंत्र की बीते एक दशक की यात्रा पर सरसरी निगाह डालें तो यही पाएंगे कि ऐसे हमले/हत्याएं अब आम हो चली हैं। अब ऐसी हत्याएं पहले पन्ने पर सुर्खियां तक नहीं बनतीं, न उन पर संपादकीय लिखे जाते हैं।
इक्कीसवीं सदी की दूसरी दहाई में भीड़ द्वारा मारे जाने की ऐसी घटनाओं में जो अचानक तेजी देखी गयी, उसका ताल्लुक भारत की सियासत और समाज में बहुसंख्यकवादी ताकतों के उभार से जुड़ा है। अगर हम अपनी याददाश्त को थोड़ा खंगाले तो पाते हैं कि इस सिलसिले की पहली हत्या 2014 में दरअसल मोदी सरकार के शपथ ग्रहण के बमुश्किल पन्द्रह दिनों के अन्दर दिखाई दी थी।
मोहसिन मोहम्मद शेख (उम्र 28 साल) इन्फार्मेशन टेक्नोलोजी मैनेजर के तौर पर काम कर रहा था। 4 जून, 2014 को जब पुणे में अपने दोस्त के साथ नमाज अता कर घर लौट रहा था, तब कथित तौर पर हिन्दू राष्ट्र सेना के साथ जुड़े गिरोह ने उसका रास्ता रोका और उसे हॉकी स्टिक्स से मारना शुरू किया। इस घटना के कुछ दिन पहले फेसबुक पर कुछ आपत्तिजनक पोस्ट शेयर की गयी थी, जिसके जवाब में इस हिंसा को अंजाम दिया गया था, जबकि उपरोक्त पोस्ट से कम्प्यूटर इंजीनियर मोहसिन का प्रत्यक्ष कोई ताल्लुक भी नहीं था। उसकी वहीं पर मौत हो गई। नए शासित भारत में वह सबसे पहली साम्प्रदायिक आधार पर निशाना बना कर की गयी हत्या थी।
पुलिस की फाइलों में हिन्दू राष्ट्र सेना के विवादास्पद रेकार्ड होने के बावजूद, और इस हकीक़त के बावजूद कि महाराष्ट्र सरकार ने कभी इस समूह पर पाबन्दी लगाने की सोची थी, उच्च न्यायालय की न्यायाधीश मृदुला भाटकर ने, मोहसिन शेख की हत्या के तीन आरोपियों को जमानत दे दी।⁶ न्यायाधीश ने जो आदेश दिया, वह गौरतलब है :
"आवेदक/अभियुक्तों की निरपराध मृतक मोहसिन से कोई निजी दुश्मनी नहीं थी, जिससे वह प्रेरित हुए थे। मृतक तक का दोष यही था कि वह दूसरे धर्म से जुड़ा था। मैं इस पहलू को आवेदक/अभियुक्त के पक्ष में समझती हूं। इसके अलावा, आवेदक/अभियुक्त का कोई पहले का आपराधिक रेकार्ड भी नहीं रहा है और ऐसा प्रतीत होता है कि धर्म के नाम पर उन्हें उकसाया गया और उन्होंने ये हत्या की है। इस परिस्थिति में मैं उनकी जमानत याचिका स्वीकार करती हूं।"
दूसरे शब्दों में कहें, तो अगर कोई व्यक्ति दूसरे को निजी दुश्मनी के आधार पर मार देता है, तो यह उससे भी बुरा है कि कोई किसी को धार्मिक आधार पर खत्म करे। अगर हम न्यायाधीश भाटकर के तर्कों को इस्तेमाल करें, तो जो धर्म के नाम पर हत्या करे, उसके साथ हत्या के अन्य मामलों की तुलना में अधिक नरमी से पेश आना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय इस फैसले को बर्दाश्त नहीं कर सका। उसका कहना था कि उच्च न्यायालय का निर्णय किसी ‘समुदाय के प्रति या खिलाफ पूर्वाग्रह से रंगा था।’ उसने मुंबई उच्च अदालत के फैसले को खारिज किया। फिर सारे जेल भेजे गए।
इस घटना में दोषियों को सज़ा दिलाने के लिए आगे भी लम्बी कानूनी लड़ाई चली और जिसमें कई उतार-चढ़ाव भी आए। दिल के मरीज मोहसिन के पिता सादिक शेख इस दौरान बच्चे के मामले में इन्साफ का इन्तज़ार करते गुजर भी गए।
लम्बी चली इस कानूनी लड़ाई का एक परिणाम यह होता है कि गवाहों के सुरक्षा की कोई योजना न होने के चलते उन्हें धमकाना आसान होता है। विडम्बना यही थी कि सरे बाज़ार हुई इस हत्या में मोहसिन के साथ चल रहे कुछ सहयोगियों ने भी दबाव में आकर अपना बयान बदल दिया और अंततः हुआ यही कि सभी अभियुक्त सेशन्स अदालत से बेदाग बाहर आए।⁷
आम तौर पर अभियोजन पक्ष ऐसे मामलों में फैसले को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय में अपील करता है, लेकिन ऐसी कोई तत्परता राज्य सरकार की तरफ से नज़र नहीं आयी। इस हत्या को लेकर आखिरी ख़बर यही मिली कि मोहसिन शेख के परिवार के लोग ही इन अभियुक्तों की रिहाई को चुनौती देने के लिए उच्च अदालत का दरवाज़ा खटखटाने वाले है।⁸
जुनैद के मामले में जो कुछ घटित हुआ वह इससे गुणात्मक तौर पर अलग नहीं था। 23 जून, 2017 को, जुनैद (उम्र 15 साल) त्यौहार के मूड में था और अपने घर पर ईद मनाने के लिए अपने दोस्तों और परिवार के कुछ सदस्यों के साथ ट्रेन में बैठ कर जा रहा था। दिल्ली से मथुरा जाने वाली ट्रेन में, उनके अगल-बगल बैठे कुछ लोगों ने जुनैद और उसके दोस्तों को उनके धर्म को लेकर छेड़ना शुरू किया। उन लोगों ने उनकी दाढ़ी को खींचा और उन्हें गोमांस खाने वाला बताया। ट्रेन का वह डिब्बा भीड़ से भरा था। और फिर उन्होंने जुनैद और उसके दोस्तों पर हमला ही कर दिया। उनके साथ चलने वाले किसी भी सहयात्री ने उनकी मदद नहीं की। जुनैद को चाकू मारा गया और उन्होंने असावटी रेलवे प्लेटफार्म पर उन्हें धकेल दिया। अपनी भाई की गोद में ही जुनैद ने वहीं रेलवे प्लेटफॉर्म पर दम तोड़ दिया। हत्यारों को गिरफतार किया गया, मगर उन्हें जल्द ही जमानत मिल गयी। न्याय का पहिया अभी भी इस मामले में धंसा हुआ है। जुनैद की मां को अभी भी न्याय का इन्तज़ार है।⁹
आज इतने सालों के बाद इस केस की तरफ लौटना समीचीन होगा ताकि यह जाना जा सके कि बहुसंख्यकवादी उन्माद में किस तरह कुछ मौतें ‘अघटना’ बन जाती हैं, जैसा कि इस घटना पर लिखे अपने आलेख में विदुषी-कार्यकर्ता आरती सेठी ने लिखा था¹⁰ :
"..इंडियन एक्स्प्रेस के कौनैन शेरीफ एम फरीदाबाद के उस रेलवे स्टेशन पर लौटे, ताकि यह जाना जाए कि आखिर जुनैद को मरते हुए किसने देखा था। उन्होंने पाया कि किसी ने भी नहीं देखा, जब एक किशोर प्लेटफार्म नम्बर चार पर लहूलुहान पड़ा था। पत्रकार ने लिखा था कि खून के वह धब्बे अभी भी प्लेटफार्म पर ‘दिख’ रहे हैं और इसके बावजूद किसी ने कुछ नहीं देखा, न स्टेशन मास्टर और न ही पोस्टमास्टर, जिनका दफ्तर प्लेटफार्म के उस पार है। ‘मैंने कुछ नहीं देखा’, उनका कहना था। दोनों ने वही वाक्य दोहराया। यहां तक कि सीसीटीवी ने भी कुछ नहीं देखा। एक अधिकारी ने बताया कि ‘घटनास्थल के बिल्कुल सामने एक सीसीटीवी कैमरा है। वायर तोड़ दी गयी है और वह काम नहीं कर रहा है।"
सेठी उन बातों को याद करती हैं, जो उन्होंने शेरीफ एम की रिपोर्ट में पढ़ा था और लिखती हैं :
".....और फिर उन्होंने सामूहिक तौर पर, बिना किसी आपसी सहमति के, जो उस घटनाक्रम को उन्होंने देखा था, उसे न देखने का सिलसिला शुरू किया। इस घटना का सबसे डरावना पहलू यही रहा है जिस पर वह रिपोर्ट रोशनी डालती है : अनकहे की आतंकित करने वाली ताकत, लेकिन जो सामूहिक तौर पर बंधनकारी हो, वहां एकत्रित उनके बीच यह सहमति कि किसी मुस्लिम बच्चे के मृत शरीर को न देखा जाए। उत्तर भारत के उस छोटे स्टेशन के रेलवे प्लेटफार्म पर उन लोगों ने तत्काल एक विचित्र सामाजिकता निर्मित की, लोगों के बीच एक साझा सामाजिक बंधन, जो आम तौर पर एक दूसरे से परिचित नहीं थे। अजनबियों के इस परस्पर स्वीकार के बाद, इस प्लेटफॉर्म पर खड़े उन लोगों ने मौन की इस संहिता का पालन करना तय किया, जिसके जरिए आज के भारत के रेलवे प्लेटफार्म पर एक मुस्लिम बच्चे की सरेआम मौत को दो सौ लोगों द्वारा देखा नहीं गया।"¹¹
हम मानें या न मानें लेकिन गणतंत्र की पचहत्तरवीं सालगिरह – जिसका जश्न हम मना चुके हैं – का यह अवसर हमारे लिए नयी चिंता का सबब बना है कि जाति, धर्म, नस्ल आदि से परे सभी के लिए समान अधिकार का दावा करने वाले गणतंत्र की छवि विकृत हो चली है। भारत ऐसी नफरती हत्याओं या हमलों के लिए बदनाम हो रहा है।
कोई भी व्यक्ति याद कर सकता है कि किस तरह सत्ताधारी जमात के एक अग्रणी नेता ने भरी सभा में खास समुदाय के लोगों को ‘कपड़ों से पहचाने जाते’ के तौर पर चिन्हित किया था या किस तरह उनके अपने साथी इसी तरह आम सभा में ‘अन्य’ लोगों के लिए ‘दीमक’ शब्द का इस्तेमाल करते देखे गए हैं। विश्लेषकों ने इस बात को रेखांकित किया था कि यह वही जुबान है, जिसका इस्तेमाल हिटलर तथा अन्य फासीवादी ताकतें करती थीं, और यहूदी समुदाय की तुलना जानवरों से करती थीं।
यह सही है कि भारत में आज असमावेशी विचारधारा और व्यवहार के दबदबे के तहत ऐसे हमले मुख्यतः धार्मिक एवं सामाजिक अल्पसंख्यकों पर हो रहे हैं और सूबा गुजरात की वह घटना बहुत पुरानी नहीं पड़ी है जब मरी हुई गाय को ले जा रहे दलितों को सामूहिक तौर पर पीटा गया था। लेकिन यह भी मानना पड़ेगा कि ऐसे हिंसक हमले महज धार्मिक एवं सामाजिक अल्पसंख्यकों तक सीमित नहीं रह सकते, जैसे-जैसे प्रतिक्रियावादी ताकतों का मन बढ़ेगा, अन्य तबके भी इस हमले की जद में आएंगे। अभी कुछ ही माह पहले एक हिन्दू नवयुवक हरियाणा में इन गोगुंडों के हमले में मारा गया था, जिन्हें सूचना मिली थी कि फलां गाड़ी से गोमांस ले जाया जा रहा है, जबकि ऐसा कुछ नहीं हुआ था और गाड़ी में बैठा वह नवयुवक इनकी गोलियों का शिकार हो गया।
लिंचिंग/बिना वैध निर्णय के मार डालने का यह सिलसिला व्यक्तिगत कार्रवाई के तौर पर – जहां एक व्यक्ति दूसरे को मारता है – शुरू नहीं हुआ, बल्कि एक सामूहिक हिंसा के तौर पर शुरू हुआ- जहां झुंड धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलितों, ट्रांन्सजेण्डर व्यक्तियों और विभिन्न किस्म के वंचित व्यक्तियों को निशाना बनाते हैं। ऐसा कोई भी व्यक्ति जिसे ‘अन्य’ समझा जाए, वह हमले का शिकार हो सकता था। प्रोफेसर संजय सुब्रमण्यम, जो कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, संयुक्त राज्य अमेरिका में पढ़ाते हैं, उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि इन स्वयंभू हिंसक गिरोहों को यह मालूम रहता है कि उनका कुछ भी नहीं बिगड़ेगा और उनकी हरकतों के प्रति उच्च पदस्थ अधिकारियों की सहमति है।
पहले भीड़-हिंसा की संगठित कार्रवाईयां दोहराव के स्वरूप में सामने आती थीं और उसका एक पैटर्न आप ढूंढ सकते थे, मिसाल के तौर पर, प्रदर्शनों पर हमला होता था या हिंसा की घटनाएं सार्वजनिक उत्सवों के दिनों के साथ जुड़ी होती थीं। यह स्थिति मुगलों के वक्त़ में भी थी। इसके पश्चात, आज़ादी के बाद के दिनों में, आम तौर पर शहरी, संगठित किस्म की हिंसा देखने को मिलती थी, जहां विभिन्न राजनीतिक पार्टियां उत्पीड़कों को संरक्षण देती दिखती थीं।
भीड़-हिंसा के पहले के चरण और मौजूदा चरण में भी और फरक करने की जरूरत है। प्रोफेसर सुब्रमण्यम ने आगे जोड़ा,
"लेकिन आज जो हम देख रहे हैं, वह किसी एक चरण में नहीं हो रहा है, आज की तारीख में कम संख्या में लोग हमलों का शिकार हो रहे हैं और वह भी विकेन्द्रीकृत है, जिसे छोटे समूहों द्वारा सभी जगह अंजाम दिया जा रहा है। इन समूहों को या तो यह बताया गया है या इसकी कल्पना करने के लिए कहा गया है कि उन्हें इसी ढंग से सक्रिय रहना है। इसके अलावा, घटना को अंजाम देने के बाद, उच्चपदस्थ पदों पर तैनात कोई उन्हें इसके विपरीत कुछ नहीं कह रहा है। इसके अलावा यह हिंसा आकांक्षामूलक भी है …विचित्र बात यह है कि मुजरिम चाहते हैं कि इस घटना का सभी को पता चले। आखिर, कुछ लोग, जो इसमें जुड़े हैं, वह इसका वीडियोटेप भी तैयार करते दिखते हैं। वे इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि यह सूचना वितरित हो रही है, जिसका मकसद अल्पसंख्यकों से अपेक्षित सामाजिक व्यवहार को लेकर एक चेतावनी, जारी करना है, एक संकेत देना है। यह सूचना एक तरह से उनके लिए नियंत्रणमूलक उपकरण के तौर पर भी उपस्थित होती है। यह ऐसी हिंसा है जो किसी दिन यहां, तो किसी दिन वहां प्रगट हो सकती है। वह कभी भी भीड़-हिंसा की शक्ल धारण नहीं करती, बल्कि ऐसे जमीनी स्तर पर जुड़े संगठनों के अस्तित्व पर आधारित होती है, जो ऐसी कार्रवाई पर यकीन करते हैं तथा एक हद तक व्यवहार की नकल करते हैं। इस तरह भले ही वह विकेन्द्रीक्रत हो, लेकिन उसका व्यापक सन्दर्भ मौजूद रहता है।"
अगर आप इस गति विज्ञान पर संदेह करते हैं, फिर एक स्टिंग आपरेशन के एक हिस्से पर गौर करना मौजूं होगा, जिसे एनडीटीवी ने अंजाम दिया था और जिसका फोकस उत्तर प्रदेश के हापुड़ में मीट के व्यापारी कासिम कुरैशी के मारे जाने और समीउद्दीन को पीटने की कार्रवाई पर था। पुलिस ने युधिष्ठिर सिंह सिसोदिया को गिरफ्तार भी किया था, जो मुख्य अभियुक्त था। जमानत पर रिहा सिसोदिया ने एनडीटीवी के ए वैद्यनाथन से बात की, जिनके पास छिपा कैमरा था। सिसोदिया ने अदालत को बताया था कि हत्या में उसकी कोई भूमिका नहीं थी, लेकिन जब वैद्यनाथन ने उस घटनाक्रम पर पूछा, तब उसने कहा :
"मैंने जेलर को बताया था वे (पीडित़) गाय को मार रहे थे, इसलिए मैंने उन्हें मारा। मेरी सेना तैयार है। अगर कोई गाय को मारता है, तो हम उसे मारेंगे और हजार बार जेल जाएंगे।
जुनैद की जब सरेआम रेलवे प्लेटफॉर्म पर हत्या हुई, तो वहां उस वक्त़ खड़े 200 लोगों ने उस हत्या को घटित होते नहीं देखा। उन्होंने हिंसा को भी नहीं देखा, उन्होंने जुनैद को भी नहीं देखा।
उसी तरह मोहसिन शेख को जब शाम के वक्त़ सरे बाज़ार मारा गया, तब भी तमाम लोग इर्द-गिर्द थे, लेकिन न किसी ने यह साहस दिखाया कि वह हत्या को रोके और न ही बाद में हिम्मत का परिचय दिया कि एक निरपराध की इस सरेआम हत्या को लेकर गवाही दे।
आज का भारत ऐसी ही बदरंग शक्ल धारण करता जा रहा है। क्या यह कहना उचित होगा कि रफ्ता-रफ्ता सहिष्णुता का प्रतीक भारत नफरत और धर्मांधता की नयी मिसाल पेश कर रहा है?
नफरत और धर्मांधता का यह नया सामान्यीकरण दरअसल हिन्दुत्व अतिवादियों और कॉर्पोरेट हितों के बीच के अपवित्र गठबंधन की तरफ इशारा कर रहा है। इसकी निशानी है कानून के राज का खात्मा, संस्थाओं को अंदर से नाकाम कर देना और असहमति रखने वाले लोगों के लिए एक डर का वातावरण पैदा कर देना। भारत आज उम्मीद का गणतंत्र नहीं, डर का गणतंत्र बनता दिख रहा है।
क्या हम में से कोई अभी जानने की तकलीफ ले सकता है कि इस देश में हाल के वर्षों में धर्म संसद के नाम पर कितने धार्मिक आयोजन हुए हैं, यहां तक कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली भी ऐसे आयोजनों से दूर नहीं रही है, जहां पर ‘समस्या’ के समाधान के लिए ‘अंतिम समाधान’ पेश करने की बातें चली हैं, भीड़ को आवाहन किया गया है कि वह आंतरिक दुश्मनों से इस धरती को मुक्त कराए? और जनसंहार के ऐसे खुले आवाहनों के बावजूद न ही आयोजकों पर और न ही ऐसे भड़काऊ भाषण देने वालों पर ठोस कार्रवाई हुई है। ऐसी घटनाओं के कोई आधिकारिक आंकड़े भी राष्ट्रीय स्तर पर मौजूद नहीं है।
दरअसल अध्ययन यही बताते हैं कि मौजूदा हुकूमत के लिए तथ्यों के संकलन और संग्रहण के प्रति बेहद अरुचि है। यहां तक कि उस पर यह आरोप भी लगते रहते हैं कि वह महत्वपूर्ण तथ्यों को छुपाती है और इतना ही नहीं, वह ऐसे संस्थानों को भी कमजोर कर रही है, जो तथ्यों के संग्रहण के लिए जिम्मेदार माने जाते हैं।¹²
अगर हम छिटपुट रिपोर्टों पर गौर करें तो इस बात का आसानी से अंदाज़ा लगा सकते हैं कि दक्षिण एशिया के इस हिस्से में, जब से हिन्दुत्व वर्चस्ववादी ताकतें हावी हुई हैं, तब से ऐसे नफरती हमले, नफरती हत्याओं में उछाल आया है।
फिरदौस आलम उर्फ अस्जाद बाबू – उम्र 24 साल – का इन्तक़ाल हो चुका है। हमें बताया गया है कि इस मामले में पुलिस ने हत्या का मामला दर्ज किया है और अभियुक्त को गिरफ्तार किया है।
सामाजिक सरोकार रखने वाले नागरिकों की तरफ से यह मांग भी उठी है कि इसे नफरती अपराध माना जाए, अभियुक्त को यूएपीए जैसे सख्त कानून में गिरफ्तार किया जाए और विशेष अदालत में उस पर मुकदमा जल्द चलाया जाए, ताकि ऐसे तमाम अतिवादियों को एक संदेश भेजा जा सके। लेकिन आज के इस बदले सियासी माहौल को देखते हुए, जहां वर्चस्ववादी वातावरण की तूती बोल रही है, ऐसा प्रतीत नहीं होता कि पुलिस कोई सख्त संदेश भेजने के लिए तैयार है।
और अस्जाद को इंसाफ दिलाने के लिए तत्पर लोगों, समूहों को लम्बी लड़ाई के लिए तैयार रहना होगा और इस बात की भी पड़ताल करनी होगी कि हत्या के ऐसे पहले सामने आए मामलों में न्याय की आकांक्षा क्यों नहीं पूरी हो सकी और क्या ध्यान रखना होगा।
तुलनात्मक तौर पर शांतिपूर्ण समयों में अस्जाद बाबू की मौत कुछ गंभीर प्रश्न हमारे सामने खड़े करती है। सबसे अहम सवाल है कि आखिर धार्मिक अल्पसंख्यकों और ‘अन्यों’ के खिलाफ हिंसा कभी पूरी तरह खत्म क्यों नहीं होती, निरंतर चलती रहती है।
क्या इसे यूं समझा जाए कि हिन्दुत्व सियासत के हिमायतियों के बीच संघ के दूसरे सरसंघचालक रहे गोलवलकर के इन विचारों की जबरदस्त गहरी पकड़ है, जिसमें वह अपनी किताब बंच आफ थॉट्स अर्थात ‘विचार सुमन’ में मुसलमानों, ईसाइयों को और कम्युनिस्टों को ‘आंतरिक दुश्मनों की श्रेणी में रखते हैं और कई बार ‘बाहरी दुश्मनो’ की तुलना में उनसे निपटना अधिक जरूरी मानते हैं।
या इस हिंसा का ताल्लुक प्रोफेसर एज़ाज अहमद की इस समझदारी में प्रतिबिम्बित होता दिखता है जिसमें वह ‘क्रूरता की संस्कृतियों की बात करते हैं। उनके मुताबिक :
" ..इसका मतलब है कि सामाजिक स्वीकृतियों का एक लम्बा जाल जिसमें एक किस्म की हिंसा को इसलिए बरदाश्त किया जाता है, क्योंकि अन्य किस्म की हिंसा को पहले से ही बरदाश्त किया जा रहा है। दहेज के नाम पर होने वाली हत्याएं सांप्रदायिक दंगों में महिलाओं के जलाए जाने को आसान करती हैं, और दोनों मिला कर, यह दोनों किस्म की हिंसा क्रूरता की एक ऐसी सामान्य संस्कृति तथा ऐसी क्रूरता के प्रति एक नैतिक जड़ता के निर्माण में योगदान करती हैं …"
निस्सन्देह, ऐसे कई अन्य सवाल हो सकते हैं, जिन पर फिर कभी विस्तार से चर्चा की जा सकती है।
(सुभाष गाताडे स्वतंत्र पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं।)