घुसपैठियों के खतरे का सच

आलेख : राजेन्द्र शर्मा
भाजपा के सर्वोच्च रणनीतिकार माने जाने वाले, अमित शाह ऐलान कर चुके थे कि उनका गठजोड़ बिहार का चुनाव और उससे अगले चरण में कम से कम असम तथा प. बंगाल का चुनाव भी, किस मुद्दे के आसरे लड़ने जा रहा है। यह मुद्दा है -- 'घुसपैठियों का खतरा'। दैनिक जागरण के एक आयोजन में अपने सार्वजनिक व्याख्यान में अमित शाह ने यह ऐलान किया। और इसी व्याख्यान में अमित शाह ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि 'घुसपैठियों' से उनका आशय, पड़ोसी देशों से आए मुसलमान प्रवासियों से ही है, जो 'आर्थिक कारणों' से आते हैं। बंगलादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि, पड़ोसी देशों में कथित रूप से धार्मिक-उत्पीड़न के कारण आने वाले—जाहिर है कि हिंदू—तो घुसपैठिये नहीं, प्रवासी हैं!
बहरहाल अमित शाह सिर्फ पड़ोसी देशों से आए प्रवासियों को इस तरह हिंदू और मुसलमान में विभाजित करने और प्रवासी मुसलमानों को 'खतरा' और प्रवासी हिंदुओं को 'अपना' बताने पर ही नहीं रुके। उन्होंने इस खतरे को बेहिसाब बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने का हथकंडा आजमाया, ताकि चुनाव प्रचार के लिए 'हिंदू खतरे में हैं' का जोर-शोर से ढोल पीटा जा सके। यह दूसरी बात है कि भाजपा के चाणक्य ने यह ढोल कुछ ऐसे अनाड़ीपन से और इतने जोर से पीटा कि ढोल ही फट गया। और इस विशाल देश के गृहमंत्री को, ट्वीट को डिलीट करना पड़ा और बाद में एक संशोधित ट्वीट जारी करना पड़ा, जिसमें से असली पंच लाइन ही गायब हो चुकी थी।
लेकिन, ऐसा होना संयोग हर्गिज नहीं है। बेशक, अमित शाह भारत के गृहमंत्री हैं, लेकिन शाह आरएसएस के परखे हुए स्वयंसेवक पहले हैं। और आरएसएस के शीर्ष हलके अब हिटलर की विचार तथा आचार की परंपरा से अपने रिश्तों को छुपाने की चाहे जितनी कोशिश क्यों न करें, लेकिन खुद को हिटलर के प्रचार मंत्री, गोयबल्स का सच्चा चेला साबित करने में हमेशा लगे रहते हैं। शाह ने अपने व्याख्यान में और उस पर आधारित ट्वीट में भी दावा किया था कि आजादी के बाद से भारत में मुसलमानों का अनुपात बढ़ता ही गया है और हिंदुओं का अनुपात तेजी से घटता जा रहा है, जो कि खतरनाक है। इस क्रम में शाह ने 1951 की जनगणना से लगाकर हिंदुओं और मुसलमानों के आबादी अनुपात के आंकड़े पेश करते हुए, बताया कि जहां हिंदुओं की आबादी, जो 1951 में 84 फीसद थी, 2011 में 79 फीसद रह गयी है और इसी दौरान मुसलमानों की आबादी 9.8 से बढ़कर 14.2 फीसद हो गयी है।
फिर भी यहां तक तो हिंदुओं के लिए बहुत विचलित होने का कारण नहीं बनता है। बेशक, देश की कुल आबादी में हिंदुओं का अनुपात घटा है और मुसलमानों का अनुपात बढ़ा है, लेकिन दोनों की जनसंख्याओं में अंतर इतना बड़ा है कि ये आंकड़े शायद ही खास चिंता पैदा करेंगे। आखिरकार, साठ साल में आबादी में मुसलमानों का अनुपात कुल 4.4 फीसद बढ़ा है और हिंदुओं का अनुपात इससे कुछ कम ही घटा है। और साठ साल की कमी और बढ़ोतरी के बावजूद, हिंदू आबादी 80 फीसद के करीब है, जबकि मुस्लिम आबादी 14 फीसद से थोड़ी-सी ही ज्यादा है। अगर हिंदुओं की आबादी घटने और मुसलमानों की आबादी बढ़ने की यही रफ्तार रहती है, जो कि होना, असंभव है और जैसा कि हम आगे देखेंगे, तब भी सरल गणित के हिसाब से भारत में मुसलमानों की आबादी को हिंदुओं की आबादी के बराबर होने में कम से कम साढ़े पांच सौ साल तो जरूर लग जाएंगे। जाहिर है कि इतनी दूर का खतरा दिखाकर, अगले ही महीने होने वाले चुनाव में वोट हासिल करने की, बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती है।
वास्तव में न पांच सौ साल में, न हजार साल में, तार्किक रूप से आबादी में मुसलमानों का हिस्सा कभी भी हिंदुओं से ज्यादा नहीं होने वाला है। और इसकी सीधी सी वजह यह है कि कुल आबादी में मुसलमानों का हिस्सा आजादी के बाद से बढ़ता जरूर रहा है, लेकिन यह रुझान गिरावट पर है। यह इसलिए है कि जहां भारत में सभी समुदायों की प्रजनन दर घट रही है, फिर भी मुस्लिम आबादी में प्रजनन दर में गिरावट, हिंदू आबादी की प्रजनन दर की तुलना में कहीं ज्यादा है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के अनुसार, 1992-93 में मुस्लिम समुदाय के मामले में प्रजनन दर, प्रति महिला 4.4 बच्चे थी, जो 2019-21 में घटकर 2.3 फीसद हो गयी, जबकि इसी दौरान हिंदू समुदाय में प्रजनन दर 3.3 फीसद से घटकर 1.9 पर आ गयी। इस तरह, मुस्लिम समुदाय में प्रति महिला 2.1 बच्चों के जन्म की कमी दर्ज की गयी, जबकि हिंदुओं के मामले में यही कमी 1.4 प्रति महिला थी। इसलिए, वह दिन ज्यादा दूर नहीं है, जब हिंदू और मुस्लिम आबादी की वृद्घि दर बराबर हो जाएगी और आबादी अनुपात में किसी उल्लेखनीय घटत-बढ़त का किस्सा ही खत्म हो जाएगा।
बहरहाल, शाह तो धड़ से यह दावा कर देते हैं कि 'भारत में मुस्लिम आबादी 24.6 फीसद पर पहुंच गयी है। यह बढ़ोतरी घुसपैठ की वजह से हुई है।' देश के गृहमंत्री उस समुदाय की आबादी में पिछले डेढ़ दशक में 10 फीसद से ज्यादा की बढ़ोतरी का दावा कर रहे थे, जिसकी आबादी साठ साल में कुल 4 फीसद बढ़ी थी! बेशक, शाह ने इसमें यह और जोड़ा था कि यह बढ़ोतरी घुसपैठ का नतीजा है। फिर भी यह बढ़ोतरी भारत की आबादी का 10 फीसद यानी 14 करोड़ होती है पर बंगलादेश की तो कुल आबादी ही 17 करोड़ है। क्या बंगलादेश की सारी आबादी घुसपैठ कर के भारत में आ गयी है? यह तो बंगलादेश और पाकिस्तान की कुल आबादी के करीब तिहाई के बराबर होता है। और तो और, संघ परिवार के अफवाही प्रचार में भी कभी घुसपैठियों का करोड़-दो करोड़ से ज्यादा का आंकड़ा नहीं सुना गया, पर यहां 14 करोड़ घुसपैठियों का दावा किया जा रहा था।
झूठ पकड़े जाने पर शाह को शर्मिंदगी से बचने के लिए ट्वीट का संबंधित हिस्सा छुपाकर भागना पड़ा। लेकिन, इस सब के बीच एक जरूरी सवाल और उठ गया है, जिसका जवाब शाह और मोदी कभी नहीं देंगे। 2011 के बाद यानी जिन कुल 14 सालों में घुसपैठियों की संख्या में करीब 14 करोड़ की बढ़ोतरी का अमित शाह दावा कर रहे थे, उनमें से 11 साल से ज्यादा से तो देश में भाजपा के नेतृत्व वाली मोदी सरकार ही है। और सभी जानते हैं कि सीमाओं की सुरक्षा, खासतौर पर घुसपैठ के खिलाफ सीमाओं की सुरक्षा, केंद्र सरकार की और उसमें भी खासतौर पर उस गृह मंत्रालय की ही जिम्मेदारी है, जिसके मुखिया छ: साल से ज्यादा से खुद अमित शाह ही हैं। उनकी नाक के नीचे इतने बड़े पैमाने पर घुसपैठ कैसे चलती रही? अगर इस पैमाने की घुसपैठ का दावा वाकई सच है, तो क्या मोदी सरकार को और खासतौर पर शाह को, इस कथित घुसपैठ की जिम्मेदारी कबूल कर इस्तीफा नहीं दे देना चाहिए।
लेकिन, गंभीरता से जिम्मेदारी संभालने के अर्थ में, जिस अवैध बांग्लादेशी घुसपैठ का इतना शोर मचाया जाता है, उसके मोर्चे पर भी मोदी सरकार का प्रदर्शन, उसके सांप्रदायिक प्रचार के विपरीत, काफी निराशाजनक ही रहा है। सिर्फ एक आंकड़ा इसे साफ कर देगा। 2003 से 2013 तक यानी 9 साल में, पूर्ववर्ती सरकार ने 88,792 अवैध बंग्लादेशी प्रवासियों का प्रत्यार्पण किया था। लेकिन, मोदी राज में 2014 से 2019 तक, 6 साल में इसके तिहाई से भी कम, कुल 2,566 अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों का ही प्रत्यार्पण किया गया था। प्रत्यार्पण की दर में यह कमी, अगर मोदी सरकार की अक्षमता को नहीं, तो जरूर कथित घुसपैठ में कमी को दिखाती है।
बेशक, देश के मौजूदा शासकों को जवाब तो इसका भी देना चाहिए कि क्या वजह है कि 2011 के बाद, जो दशकीय जनगणना 2011 में पूरी हो जानी चाहिए थी, 2026 में ही कहीं जाकर शुरू होने वाली है? बेशक, 2020 में कोरोना के विस्फोट के चलते जनगणना का काम रुक गया था। लेकिन, उसके बाद तो पूरा आधा दशक गुजर चुका है। सच्चाई यह है कि हमारे अड़ोस-पड़ोस के छोटे-छोटे देशों ने भी इस बीच जनगणना कराई है और भारत संभवत: ऐसे बहुत थोड़े से अपवादों में से है, जहां जनगणना अब तक कोरोना की बाधा से उबर नहीं पाई है। यह कहने में भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आपदा में अवसर खोजने की आदी भाजपा सरकार ने, अपने जनगणना को अकारण टालने को भी अपने सांप्रदायिक प्रचार के लिए 'अवसर' बना लिया है। जाहिर है कि अगर 2020-21 की जनगणना हो गयी होती, तो अमित शाह मुसलमानों की आबादी घुसपैठ की वजह से अब 24.6 फीसद हो जाने जैसा अंधाधुंध दावा तो नहीं ही कर सकते थे। आखिरकार, जनगणना के आंकड़ों ने ही उन्हें इस सच्चाई को कबूल करने के लिए मजबूर किया है कि आजादी के बाद साठ साल में मुस्लिम आबादी के अनुपात में कुल 4 फीसद की बढ़ोतरी हुई है।
बेशक, इन सारे तथ्यों से संघ-भाजपा के 'घुसपैठ से हिंदू खतरे में' के झूठ को भुनाने के प्रयासों में कोई कमी नहीं आने जा रही है। उन्होंने अपने सांप्रदायिक घोड़े पर, घुसपैठ के अनाप-शनाप दावों की जीन को कस दिया है। फिर भी, बिहार की जागरूक जनता इस झूठे प्रचार के सामने, अपने अनुभव से जुड़ा एक सवाल तो जरूर पूछेगी। बिहार में हुए मतदाता सूचियों विशेष सघन पुनरीक्षण या एसआईआर के पीछे अवैध घुसपैठ को एक प्रमुख कारण बताने के बाद, अब चुनाव आयोग इस पर चुप्पी क्यों साध गया है कि कितने घुसपैठिए मिले हैं? वास्तव में, पौने आठ करोड़ मतदाताओं को छानने के बाद, कुल 3.75 लाख नामों पर आपत्ति आई है, जिसमें विदेशी होने की शिकायत के कुल 1087 मामले थे। इनमें से आपत्ति सही मानकर डिलीट किए गए 390 और इनमें मुसलमान कुल 76 थे। जिस सीमांचल में घुसपैठ का इतना शोर था, वहां विदेशी के नाम पर सिर्फ 4 लोग निकले हैं। हिंदू तो खतरे में नहीं हैं, तब खतरे में कौन है — क्या घुसपैठ का झूठा हौवा खड़ा कर के हिंदुओं को ठगने की राजनीति ही खतरे में नहीं है?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोकलहर' के संपादक हैं।)