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आतंकवाद विरोधी राष्ट्रीय सर्वानुमति कौन तोड़ रहा है?

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 आतंकवाद विरोधी राष्ट्रीय सर्वानुमति कौन तोड़ रहा है?

आलेख : राजेंद्र शर्मा

पहलगाम की दरिंदगी और उसके बाद के घटनाक्रम पर, जिसमें ऑपरेशन सिंदूर भी शामिल है, राष्ट्रीय सर्वानुमति की मियाद पूरी हो गयी लगती है। और यह विपक्ष के बावजूद और मुख्य रूप से सत्ताधारी संघ-भाजपा की, इस घटनाक्रम से उठी देश की चिंताओं व भावनाओं को, अपने राजनीतिक/चुनावी लाभ के लिए भुनाने की हड़बड़ी की वजह से हो रहा है। और इस मुहिम का नेतृत्व सबसे बढ़कर खुद प्रधानमंत्री मोदी और उनके नंबर-दो माने जाने वाले अमित शाह और भाजपा के अन्य सभी शीर्ष नेता कर रहे हैं। यह सिलसिला उस मुकाम पर पहुंच चुका है, जहां स्वयं प्रधानमंत्री की सभा में, 'अब ऑपरेशन सिंदूर की तरह प. बंगाल में ऑपरेशन बंगाल चलाने' के आह्वान किए जा रहे हैं! कहने की जरूरत नहीं है कि यह आह्वान प. बंगाल के आगामी विधानसभा चुनाव के लिए किया जा रहा था, जो अगले साल के शुरू के महीनों में होने हैं।

तभी असम, केरल, तमिलनाडु तथा पुदुच्चेरी की विधानसभाओं के भी चुनाव होने हैं। इसी बीच, बिहार में जहां चुनाव अब कुछ ही महीने दूर रह गए हैं, खुद प्रधानमंत्री ने अपनी व्यावहारिक मायनों में चुनावी सभाओं में याद दिलाना जरूरी समझा है कि पहलगाम के बाद बिहार की धरती पर उन्होंने जो आतंकवादियों को मिट्टी में मिला देने का वादा किया था, उसे उन्होंने पूरा कर दिया है! जाहिर है कि पहलगाम की दरिंदगी के बाद उठे आतंकवाद-विरोधी भावनाओं के ज्वार और 'ऑपरेशन सिंदूर' की कामयाबी के दावों को, अपने चुनावी राजनीति के थैले में बंद करने की मोदीशाही की हड़बड़ी ही है, जो राष्ट्रीय सर्वानुमति के टुकड़े करने पर आमादा है।

वास्तव में, पहलगाम की घटना के बाद से सामने आयी राष्ट्रीय सर्वानुमति में और खासतौर पर इस सर्वानुमति में विपक्ष की हिस्सेदारी में, एक प्रकार का इकतरफापन शुरूआत से ही था। एक ओर लगभग समूचे विपक्ष ने न सिर्फ पहलगाम की दरिंदगी की दो-टूक स्वर में निंदा की थी, आतंकवादियों तथा उनके आकाओं के खिलाफ सरकार द्वारा उठाए जाने वाले कदमों के लिए भी आम तौर पर अपने समर्थन का ऐलान किया था। इसमें 'ऑपरेशन सिंदूर' का आमतौर पर समर्थन भी शामिल था। यह समर्थन, पहले पहलगाम की घटना के तीसरे दिन और उसके बाद ऑपरेशन सिंदूर की पृष्ठभूमि में बुलायी गयी, सर्वदलीय बैठकों के मंच से किया गया था। यहां तक कि बाद में इस समर्थन का अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक विस्तार करते हुए, विपक्ष ने सांसदों के सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, जिन्हें आतंकवाद तथा उसके लिए पाकिस्तान के समर्थन के मुद्दे पर भी भारत का पक्ष रखने के लिए, करीब तीन दर्जन देशों की राजधानियों में भेजा गया है, जो कार्यक्रम इन पंक्तियों के लिखे जाने तक भी चल ही रहा था।

इतना ही नहीं, इस इकतरफापन को और भी गहरे रंग में रंगते हुए, विपक्ष ने आम तौर पर सत्ताधारियों से असुविधाजनक सवाल करने से भी परहेज किया था। मिसाल के तौर पर पहलगाम की घटना के पीछे 'सुरक्षा चूक' के लिए जवाबदेही का सवाल गंभीरता से उठाने से प्राय: परहेज किया गया। यह इसके बावजूद था कि हालात के दबाव में, सर्वदलीय बैठक के बाद सरकार के प्रवक्ता के रूप में मंत्री किरण रिजिजू ने खुद कुछ 'चूक' होने की बात स्वीकार की थी, हालांकि बाद में सरकार ने इस 'स्वीकृति' से पीछा छुड़ाने की तमाम कोशिशें की थीं। यहां तक कि सर्वदलीय बैठक से प्रधानमंत्री के अनुपस्थित रहने और बाद में बिहार में मधुबनी में जनसभा में पहुंचकर प्रधानमंत्री के 'मिट्टी में मिलाने' के ऐलान करने पर भी, गंभीरता से सवाल उठाने से आम तौर पर बचा ही गया। ऐसा ही एक बार फिर हुआ जब ऑपरेशन सिंदूर की पृष्ठभूमि में हुई सर्वदलीय बैठक में, एक बार फिर प्रधानमंत्री ने अनुपस्थित रहना ही पसंद किया।

इतना ही नहीं, न सिर्फ ऑपरेशन सिंदूर से लेकर उसकी सफलता के दावों तक पर किसी भी तरह के गंभीर सवालों से आम तौर पर बचा गया, बल्कि 10 मई की शाम से अचानक शस्त्र विराम किए जाने के तर्क और यहां तक शस्त्र विराम कराने के श्रेय के लिए अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के बार-बार दोहराए जा रहे दावों पर, सवाल उठाने से भी प्राय: इसकी चिंता से बचा गया कि इससे कहीं राष्ट्रीय सर्वानुमति कमजोर न पड़ जाए। और तो और विदेश भेजे जाने वाले बहुदलीय प्रतिनिधिमंडलों के लिए सत्ताधारी पार्टियों से इतर, अन्य पार्टियों के सांसदों के चयन में मोदीशाही की मनमानी पर भी कोई बलपूर्वक विरोध नहीं जताया गया। यह इसके बावजूद था कि सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी, कांग्रेस से चार नाम मांगने के बाद, उसके दिए नामों में से एक प्रतिनिधि के लिए ही मंजूरी दी गयी, जबकि प्रतिनिधिमंडलों के लिए उसके तीन अन्य नेता सत्ताधारी पार्टी ने खुद ही चुन लिए।

बहरहाल, हद तो तब हो गयी जब मोदीशाही ने आतंकवाद के विरुद्घ जनाक्रोश को अपने राजनीतिक/ चुनावी प्रचार की ओर मोड़ने की खुल्लमखुल्ला कोशिशें शुरू कर दीं। शीर्ष पर खुद प्रधानमंत्री मोदी ने, बीकानेर के सरकारी कार्यक्रम के अपने चुनावनुमा भाषण से इसकी शुरूआत कर दी, जिसे उसके फौरन बाद गुजरात में प्रधानमंत्री के ही रोड शो तथा आम सभाओं के जरिए, भाजपा के और भी खुले राजनीतिक प्रचार के साथ सीधे-सीधे जोड़ दिया गया। और उसके बाद से इसे इस तरह के आयोजनों का आम स्वर ही बनाया जा चुका है। इसी दौरान, संघ-भाजपा ने सैन्य पोशाकों में विभिन्न मुद्राओं में प्रधानमंत्री मोदी के बड़े-बड़े कटआउटों तथा बैनरों आदि के जरिए, आतंकवाद विरोधी कार्रवाई को प्रधानमंत्री 'मोदी की निजी वीरता' के मिथक का हिस्सा बनाने की कोशिशें की हैं।

इसी सिलसिले को शीर्ष तक पहुंंचाने के लिए, संघ-भाजपा ने मोदी सरकार के स्थापना दिवस, 7 जून से ऑपरेशन सिंदूर का संदेश घर-घर ले जाने के लिए, 'घर-घर सिंदूर' अभियान की कल्पना की थी, लेकिन इसकी संभावित प्रतिक्रियाओं का पूर्वानुमान कर, इसे फेक न्यूज ही बताकर, जल्दी-जल्दी में इस विचार से ही पीछा छुड़ाने की कोशिश की गयी है। यहां यह ध्यान दिलाना अप्रासांगिक नहीं होगा कि 'घर-घर सिंदूर' के ख्याल से पीछा छुड़ाने की हड़बड़ी के पीछे भी कोई इसकी चिंता नहीं थी कि इस तरह ऑपरेशन सिंदूर को संघ-भाजपा के राजनीतिक प्रचार का हिस्सा बनाए जाने का, इस पूरे दौर में सामने आयी राष्ट्रीय सर्वानुमति पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। इस ख्याल से पीछा छुड़ाने के पीछे तो सिर्फ इसी की चिंता थी कि 'सिंदूर दान' के सांस्कृतिक प्रतीक के संदर्भ में, घर-घर सिंदूर भेजना उल्टा पड़ सकता था। बहरहाल, 'घर-घर सिंदूर' योजना भले खटाई मेें पड़ गयी हो, पहलगाम और उसके बाद के घटनाक्रम का क्षुद्र राजनीतिकरण अब मुकम्मल हो चुका है।

इसी पृष्ठभूमि में इंडिया गठबंधन के माध्यम से विपक्ष अगर अब, इस पूरे घटनाक्रम पर चर्चा करने के लिए, संसद का विशेष सत्र बुलाए जाने की आग्रहपूर्वक मांग करना जरूरी समझ रहा है, तो यह न सिर्फ बहुत ही जरूरी है, बल्कि वास्तव में कुछ देरी से ही आ रही मांग है। याद रहे कि पहलगाम की घटना के लिए जिम्मेदार सुरक्षा चूक से लेकर, ऑपरेशन सिंदूर के हानि-लाभ तक, तमाम सवाल अब तक अनुत्तरित ही बने हुए हैं। बेशक, सत्ताधारी संघ-भाजपा की ओर से इन प्रश्नों के उत्तरों की हरेक मांग को, इस मामले में राष्ट्र के पक्ष को कमजोर करने की ही मांग बताया जा रहा है। लेकिन, यह सिर्फ सत्ताधारियों का सुविधा का तर्क है। वास्तव में इन प्रश्नों को और टाला नहीं जा सकता है। इसका पता सीडीएस यानी सेना प्रमुख के सिंगापुर के एक साक्षात्कार में ऑपरेशन सिंदूर की शुरूआत में भारतीय 'विमानों को नुकसान' पहुंचने की स्वीकृति से लगता है, हालांकि ऐसे विमानों की संख्या उनके अनुसार छ: से कम ही थी।

इस सब का एक ही अर्थ है कि बाकी सारी दुनिया तक तो किसी न किसी तरह सारी जानकारी पहुंच रही होगी, लेकिन भारतीयों को ही तमाम आधिकारिक जानकारियों से वंचित रखा जाएगा, जिससे राष्ट्र के अस्तित्व से जुड़े सवालों पर भी, वे जानकारियों के आधार पर कोई राय नहीं बना सकें। और यह सब सिर्फ इसलिए किया जा रहा होगा ताकि सत्ताधारी संघ-भाजपा के लिए, लोगों की वैचारिक रूप से अंधी भावनाओं का राजनीतिक/चुनावी दोहन करना, आसान बना रहे। यह जनतंत्र के न्यूनतम तकाजों का निषेध है, जिसकी अब और इजाजत नहीं दी जा सकती है। विपक्ष को स्पष्ट रूप से यह कहना होगा कि मोदीशाही ही है, जो इस मामले में राष्ट्रीय सर्वानुमति को तोड़ रही है और विपक्ष पर ही इस सर्वानुमति को तोड़ने का आरोप लगाने की उसकी बंदर घुड़की में, विपक्ष अब और नहीं आने वाला है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोकलहर' के संपादक हैं।)